विषय: नामकरण एवं वर्गीकरण


1. भक्तिकाल के नामकरण एवं वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।

                अथवा

2. भक्तिकाल का वर्गीकरण करते हुए निर्गुण एवं सगुण धारा का विस्तृत विवेचन कीजिए।

                 अथवा

3.भक्तिकाल की विभिन्न काव्य-धाराओं पर संक्षिप्त परिचयात्मक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर: हिंदी साहित्य के इतिहास के द्वितीय चरण को भक्तिकाल कहा गया है। इसे पूर्वमध्यकाल हिंदी साहित्य से भी जाना जाता है। इसके नामकरण पर विभिन्न विद्वानों ने अपना मत प्रकट किया है। हिंदी साहित्य के द्वितीय चरण को मिश्रबन्धु ने  'माध्यमिक काल' कहांँ है तो रामचंद्र शुक्ला, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामकुमार वर्मा ने इसे 'भक्तिकाल' माना है और डॉ गणपतिचंद्र गुप्त ने इसे 'पूर्व भक्तिकाल' कहा है। 'भक्तिकाल' नामकरण का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी को जाता है। शुक्ला जी ने संवत् 1375 वि. से संवत् 1700 वि. तक के कालखंड को भक्तिकाल की संज्ञा प्रदान की है। उन्होंने कहा है कि "कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को संभालने और लीन रखने के लिए दबी हुई भक्ति को जगाने लगे। क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विस्तृत और प्रबल होता गया कि उसकी लेपट में केवल हिंदू जनता ही नहीं देश में बसने वाले सहृदय मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गए।"अतः उनका कहना है कि इस कालखंड में उपलब्ध रचनाओं में 'भक्ति' भाग की प्रधानता रही है, जिसके चलते इसका नाम भक्तिकाल पड़ा‌। शुक्ल जी भक्ति भाव का मूल स्रोत दक्षिण भारत को मानते हैं।उनका कहना है कि "भक्ति के आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग की भावना कुछ लोगों में जगाई।" यद्यपि 'भक्तिकाल' और 'पूर्वमध्यकाल' काफी लोकप्रिय है किंतु पूर्वमध्यकाल नाम से प्रवृत्ति विशेष का परिचय नहीं मिलता है। इस काल के साहित्य में भक्ति की प्रबलता रही है। अतः इस दृष्टि से भक्तिकाल नाम अधिक उचित प्रतीत होता है।


भक्तिकाल का वर्गीकरण:-

हिंदी साहित्य के इतिहास के विकासात्मक वर्गीकरण में द्वितीय आचरण को मध्यकाल कहा गया है। उस समय मुगलों का शासन काल था। हिंदू व मुस्लिम धर्म में उदारता व सद्भाव नहीं था। दोनों धर्मों के बीच द्वेष बढ़ गया था जिसके चलते समाज में छुआछूत ऊंँची नीची, जाति पाति की भावना प्रबल हो गई थी। ऐसी स्थिति में निराश और क्षुब्ध हृदय को सांत्वना देने के लिए भक्ति भावना के रास्ते पर चलना आवश्यक हो चला था। इस कारण लगभग 1400 ई. से 1550 ई. व्यापक रूप से कवियों के द्वारा धर्म और भक्ति का प्रचार प्रसार हुआ। जिन कवियों ने ब्रह्म को निर्गुण निराकार बताकर साहित्य की रचना की उन्हें निर्गुण धारा का कवि कहा गया और जिन कवियों ने ईश्वर के सगुण आत्मक शुरू की कल्पना करके साहित्य की रचना की उन्हें सगुण धारा का कवि कहा गया। इस प्रकार भक्तिकाल को सामान्यतः दो वर्गों में विभक्त किया गया- निर्गुण धारा एवं सगुण धारा। पुनः इन दोनों धाराओं को दो-दो शाखाओं में बांँटा गया है। निर्गुण धारा के अंतर्गत ज्ञानाश्रई शाखा एवं प्रेमाश्रय शाखा है तथा सगुण धारा के अंतर्गत रामकाव्य एवं कृष्णकाव्य है।


(क) निर्गुण काव्य धारा: निर्गुण काव्यधारा में ईश्वर के निराकार रूप की उपासना की जाती है। निर्गुण भक्ति में 'नाम जप' साधना पर बल दिया गया है। जहांँ नाम ही भक्ति वह मुक्ति का द्वार है। भक्ति भावना मानव को एक ऐसे विश्वव्यापी धर्म से जुड़ती है जहांँ जात-पात, छुआछूत वर्ण-भेद आदि नहीं होता। निर्गुण धारा भी दो शाखाओं में विभक्त है। जो लोग ज्ञान को महत्व देते थे, उन्हें ज्ञानाश्रयी  शाखा का कवि और जो लोग प्रेम को महत्व देते थे उन्हें प्रेमाश्रय शाखा का कवि माना गया।


(i) ज्ञानाश्रयी शाखा: यह शाखा तत्कालीन परिस्थिति के अनुकूल हिंदू मुस्लिम एकता की भावना को लेकर प्रवाहित हुई थी। हिंदू व मुसलमान धर्म में उदारता व सद्भाव जागृत कर दोनों धर्मों में द्वेष न हो इस उद्देश्य से कवियों ने काव्य की रचना की। कवियों ने मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, रोजा नमाज जैसे बाह्य और मिथ्या आडंबरों का खण्डन कर उसका विरोध किया। इस शाखा के प्रमुख कवि कबीर दास जी थे। उन्होंने भक्ति के प्रसार के क्रम में सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वास, मूर्ति पूजा, हिंसा, जात-पात, छुआछूत आदि का तीव्रता पूर्वक विरोध किया।इनके अलावा रैदास, दादू दयाल, मलूक दास, सुंदर दास जैसे कवि ज्ञानाश्रयी शाखा के अंतर्गत आते हैं।


(ii) प्रेमाश्रय शाखा: इस शाखा को प्रेमाश्रयी इसलिए कहा गया क्योंकि इस शाखा के कवियों ने ईश्वर की प्राप्ति हेतु प्रेम मार्ग को ही श्रेष्ठ माना था। वे ईश्वर तथा जीव का संबंध प्रेम को मानते थे। इस शाखा के कवि खास तौर पर मुसलमान सूफी संत थे। मुसलमान होते हुए भी हिंदू समाज को अपने ज्ञान तथा काव्य से काफी प्रभावित किया। इस शाखा के प्रमुख कवि थे मलिक मोहम्मद जायसी। उनके द्वारा रचित 'पद्मावत' महाकाव्य  से इस शाखा के महत्व को जाना जा सकता है। इनके अलावा मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन आदि भी इस शाखा के अंतर्गत आते हैं।

    निर्गुण धारा के कवियों में रहस्यवाद की प्रवृत्ति भी उपलब्ध होती है। वस्तुतः रहस्यवाद निर्गुण ब्रह्म पर ही आश्रित है। निर्गुण ब्रह्म को जब भावना का विषय बना लिया जाता है तो रहस्यवाद का जन्म होता है। कवि और जायसी दोनों ने ही निर्गुण ब्रह्म को रहस्यवाद का विषय बनाया है। सांसारिक प्रपंच से ऊपर उठकर उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त करने की साधना रहस्यवाद का मूल तत्व है।


(ख) सगुण भक्ति धारा: जिन कवियों ने ईश्वर के सगुणात्मक स्वरूप की कल्पना करके साहित्य में उसे चित्रित किया, वे सगुण धारा के अंतर्गत आते हैं। सगुण भक्ति धारा में वैष्णव धर्म का संबंध विष्णु से है। इस शाखा के अंतर्गत ब्रह्मा के दो अवतार राम और कृष्ण की समस्त लीलाओं का व्याख्यान किया गया है। सगुण धारा में मूर्ति पूजा की उपासना करना ही कवियों का लक्ष्य रहा है। सगुण धारा को भी दो शाखाओं में बांँटा गया है:


(i) रामाश्रयी शाखा: इस शाखा के कवि मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपना आराध्य मानकर रचना करते थे। इस शाखा में वैष्णव भक्ति को स्थापित कर विष्णु के अवतार रूपी श्री राम को महत्व दिया गया है। राम के जीवन चरित्र को आधार बनाकर कवियों ने अपने भक्ति भावना व्यक्त की है, जिनमें गोस्वामी तुलसीदास सर्वश्रेष्ठ है।


(ii)कृष्णाश्रयी शाखा: इस शाखा के कवि भगवान श्री कृष्ण की आराधना करते थे। कृष्ण को अवतारी पुरुष मानकर उनके समस्त लीलाओं का व्याख्यान करना ही कवियों का लक्ष्य रहा है। इन धारा के कवियों को अष्टछाप के कवियों के नाम से जाना जाता है। जिनमें सूरदास, कुंभन दास, परमानंद दास, नंददास, कृष्णा दास, गोविंद स्वामी, चतुर्भुज दास एवं छीतस्वामी प्रसिद्ध है। इनमें सूरदास जी सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि उनके रचनाओं में भावुकता, गेयता, स्वाभाविकता आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।

       तत्कालीन परिस्थितियों में सगुणोपासक भक्त कवियों का सारा प्रयत्न इस ओर केंद्रित था कि हिंदू समाज को विघटन और उत्पीड़िन से बचाया जाए। इसीलिए उन्होंने हिंदू समाज के विभिन्न घटनाओं को संगठित करने का कार्य किया। उनकी समन्वयवादी विचारधारा के पीछे मूल मंतव्य यही था।


          निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल है। इस काल में धर्म और भक्ति का प्रचार-प्रसार हुआ। कुछ कवियों ने पारंपरिक द्वेष-भाव, कर्म काण्ड, ऊंँच-नीच को व्यर्थ माना और दोनों संप्रदायों में एकता का प्रयास किया। कुछ कवियों ने प्रेम पीर के माध्यम से दोनों को निकट लाने का प्रयास किया तो कुछ ने रामकृष्ण के माध्यम से जीवन के सरस मधुर पक्ष का परिचय देकर लोगों में जीवन के प्रति अनुराग जगाया। अतः इस काल में भारतीय जीवन में जो आध्यात्मिक उत्कर्ष हुआ, उससे इस काल का साहित्य अत्यंत सशक्त और गौरवपूर्ण बन गया।




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