जन आंदोलनों का उदय

अध्यायः 7

1. चिपको आंदोलन के बारे में निम्नलिखित में कौन-कौन से कथन गलत हैंः

(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आंदोलन था।

उत्तरः

(ख) इस आंदोलन ने पारिस्थितिकी और शोषण के मामले उठाए।

उत्तरः

(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरु किया गया शराब-विरोधी आंदोलन था।

उत्तरः

(घ) इस आंदोलन की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण होना चाहिए।

उत्तरः

2. नीचे लिखे कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और जरुरी सुधार के साथ उन्हें दुरुस्त करके दोबारा लिखेंः

(क) सामाजिक आंदोलन भारत के लोकतंत्र को हानि पहुँचा रहे हैं।

उत्तरः

(ख) सामाजिक आंदोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गो के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।

उत्तरः

(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आंदोलनों का उदय हुआ।

उत्तरः

3. उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में (अब उत्तराखंड) 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आंदोलन का जन्म हुआ? इस आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तरः

4. भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ़ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?

उत्तरः

5. आंध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आंदोलन ने देश का ध्यान कुछ गंभीर मुद्दों की तरफ़ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?

उत्तरः

6. क्या आप शराब-विरोधी आंदोलन को महिला- आंदोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।

उत्तरः

7. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजनाओं का विरोध क्यों किया?

उत्तरः

8. क्या आंदोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतंत्र मज़बूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।

उत्तरः

9. दलित- पैंथर्स ने कौन-से मुद्दे उठाए ?

उत्तरः

10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें: .... लगभग सभी नए सामाजिक आंदोलन नयी समस्याओं जैसे-पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंघन..... के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपनेआप में समाजव्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आंदोलन अतीत की क्रांतिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आंदोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए • हैं और यही इनकी कमजोरी है... सामाजिक आंदोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीज़ों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन आंदोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो पाता है। ये आंदोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। 'इस' या 'उस' के विरोध (पश्चिम-विरोधी, पूँजीवाद विरोधी, 'विकास'-विरोधी, आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों-ऐसी बात नहीं।

(क) नए सामाजिक आंदोलन और क्रांतिकारी विचारधाराओं में क्या अंतर है?

उत्तरः

(ख)लेखक के अनुसार सामाजिक आंदोलनों की सीमाएँ क्या-क्या हैं?

उत्तरः

(ग) यदि सामाजिक आंदोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें 'बिखरा' हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज़्यादा केंद्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।

उत्तरः