Lesson -16

(भक्ति काल)


              

1. भक्ति काल का सामान्य परिचय देकर उसकी प्रमुख शाखाओं का एक संक्षिप्त परिचय दीजिए।

 or

"हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में भक्ति का स्वरूप निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में प्रकट हुआ है।- उसका विवरण प्रस्तुत करें?


उत्तर: हिंदी साहित्य के इतिहास के विकासात्मक वर्गीकरण में द्वितीय आचरण को मध्यकाल कहा गया है। उस समय मुगलों का शासन काल था। हिंदू व मुस्लिम धर्म में उदारता व सद्भाव नहीं था। दोनों धर्मों में द्वेष बढ़ गया था। उस समय छुआछूत ऊंँची नीची, जाति पाति की भावना प्रबल थी। ऐसी स्थिति में निराश और क्षुब्ध हृदय को सांत्वना देने के लिए भक्ति भावना के रास्ते पर चलना आवश्यक हो चला था। इस कारण लगभग 1400 ई. से 1550 ई. व्यापक रूप से कवियों के द्वारा धर्म और भक्ति का प्रचार प्रसार हुआ। जिन कवियों ने ब्रह्म को निर्गुण निराकार बताकर साहित्य की रचना की उन्हें निर्गुण धारा का कवि कहा गया और जिन कवियों ने ईश्वर के सगुण आत्मक शुरू की कल्पना करके साहित्य की रचना की उन्हें सगुण धारा का कवि कहा गया। इस आधार पर हिंदी भक्ति धारा को दो प्रमुख शाखाओं में विभाजित किया गया है:-


(क) निर्गुण काव्य धारा: निर्गुण काव्यधारा में ईश्वर के निराकार रूप की उपासना की जाती है। निर्गुण भक्ति में 'नाम जप' साधना पर बल दिया गया है। जहांँ नाम ही भक्ति वह मुक्ति का द्वार है। भक्ति भावना मानव को एक ऐसे विश्वव्यापी धर्म से जुड़ती है जहांँ जात-पात, छुआछूत वर्ण-भेद आदि नहीं होता। निर्गुण धारा भी दो शाखाओं में विभक्त है। जो लोग ज्ञान को महत्व देते थे, उन्हें ज्ञानाश्रयी  शाखा का कवि और जो लोग प्रेम को महत्व देते थे उन्हें प्रेमाश्रय शाखा का कवि माना गया।


(i) ज्ञानाश्रयी शाखा: यह शाखा तत्कालीन परिस्थिति के अनुकूल हिंदू मुस्लिम एकता की भावना को लेकर प्रवाहित हुई थी। हिंदू व मुसलमान धर्म में उदारता व सद्भाव जागृत कर दोनों धर्मों में द्वेष न हो इस उद्देश्य से कवियों ने काव्य की रचना की। कवियों ने मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, रोजा नमाज जैसे बाह्य और मिथ्या आडंबरों का खण्डन कर उसका विरोध किया। इस शाखा के प्रमुख कवि कबीर दास जी थे। उन्होंने भक्ति के प्रसार के क्रम में सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वास, मूर्ति पूजा, हिंसा, जात-पात, छुआछूत आदि का तीव्रता पूर्वक विरोध किया।इनके अलावा रैदास, दादू दयाल, मलूक दास, सुंदर दास जैसे कवि ज्ञानाश्रयी शाखा के अंतर्गत आते हैं।


(ii) प्रेमाश्रय शाखा: इस शाखा को प्रेमाश्रयी इसलिए कहा गया क्योंकि इस शाखा के कवियों ने ईश्वर की प्राप्ति हेतु प्रेम मार्ग को ही श्रेष्ठ माना था। वे ईश्वर तथा जीव का संबंध प्रेम को मानते थे। इस शाखा के कवि खास तौर पर मुसलमान सूफी संत थे। मुसलमान होते हुए भी हिंदू समाज को अपने ज्ञान तथा काव्य से काफी प्रभावित किया। इस शाखा के प्रमुख कवि थे मलिक मोहम्मद जायसी। उनके द्वारा रचित 'पद्मावत' महाकाव्य  से इस शाखा के महत्व को जाना जा सकता है। इनके अलावा मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन आदि भी इस शाखा के अंतर्गत आते हैं।


(ख) सगुण भक्ति धारा: जिन कवियों ने ईश्वर के सगुणात्मक स्वरूप की कल्पना करके साहित्य में उसे चित्रित किया, वे सगुण धारा के अंतर्गत आते हैं। सगुण भक्ति धारा में वैष्णव धर्म का संबंध विष्णु से है। इस शाखा के अंतर्गत ब्रह्मा के दो अवतार राम और कृष्ण की समस्त लीलाओं का व्याख्यान किया गया है। सगुण धारा में मूर्ति पूजा की उपासना करना ही कवियों का लक्ष्य रहा है। सगुण धारा को भी दो शाखाओं में बांँटा गया है:


(i) रामाश्रयी शाखा: इस शाखा के कवि मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपना आराध्य मानकर रचना करते थे। इस शाखा में वैष्णव भक्ति को स्थापित कर विष्णु के अवतार रूपी श्री राम को महत्व दिया गया है। राम के जीवन चरित्र को आधार बनाकर कवियों ने अपने भक्ति भावना व्यक्त की है, जिनमें गोस्वामी तुलसीदास सर्वश्रेष्ठ है।


(ii)कृष्णाश्रयी शाखा: इस शाखा के कवि भगवान श्री कृष्ण की आराधना करते थे। कृष्ण को अवतारी पुरुष मानकर उनके समस्त लीलाओं का व्याख्यान करना ही कवियों का लक्ष्य रहा है। इन धारा के कवियों को अष्टछाप के कवियों के नाम से जाना जाता है। जिनमें सूरदास, कुंभन दास, परमानंद दास, नंददास, कृष्णा दास, गोविंद स्वामी, चतुर्भुज दास एवं छीतस्वामी प्रसिद्ध है। इनमें सूरदास जी सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि उनके रचनाओं में भावुकता, गेयता, स्वाभाविकता आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।


2. संत निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा का सामान्य परिचय देते हुए संत काव्य परम्परा में कबीर दास की क्या देन रही है उसका वर्णन करो।


उत्तर:

ज्ञानाश्रयी शाखा: ज्ञानाश्रयी शाखा निर्गुण काव्यधारा के अंतर्गत आने वाली एक प्रमुख शाखा है, जिसमें ज्ञान को ही परम सत्य माना जाता है। मूर्ति पूजा का खण्डन कर लोगों में उदारता वह ज्ञान का प्रचार करना ही कवियों का मुख्य उद्देश्य था। उन्होंने जातिभेद, वर्ण व्यवस्था, छुआछूत रोजा नमाज, तीर्थ यात्रा आदि सभी बाह्य आडम्बरों का उग्र विरोध किया। इस धारा के कवियों को संत कवि भी कहा जाता है। संत काव्य के रचयिता संत कवि प्राय: निम्न वर्ग के शूद्र कहे जाने वाले लोग थे। जिनमें कबीर जुलाहा परिवार में, रैदास चमार परिवार में, तो सदन कसाई परिवार में पले या जन्मे थे। इन्हें उच्च वर्ग के हिंदुओं के द्वारा किए जाने वाले दूर व्यवहारों तथा अत्याचारों का शिकार होना पड़ा था। इसीलिए उनकी साधना में इन सामाजिक अत्याचारों की अत्यधिक उग्र प्रतिक्रिया लक्षित होती है। उनके काव्य रचनाओं में बाह्य साधना की अपेक्षा भावना की प्रधानता रहती है।   

        संत कवियों के अनुसार जगत के समस्त जीव परमात्मा के ही अंश है। मोह माया के चक्कर में लोग वास्तविकता को भूल गए हैं। लोगों को सही मार्ग दिखाने हेतु गुरु ही आगे आते हैं एवं वही अपने शिष्य को सही रास्ता दिखा सकते हैं। इसलिए संत कवियों ने गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना है। 


संत काव्य परम्परा में कबीर की दिन:

           कबीर संत परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि और प्रवर्तक माने जाते हैं। उनका जन्म सन 1398 ई. में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। माता ने लज्जा के कारण पैदा होते ही कबीर को त्याग दिया। नीरू और नीमा नामक जुलाहे ने इनका पालन-पोषण किया। उन्होंने स्वामी रामानंद से दीक्षा प्राप्त की थी। अध्यात्मिक अध्ययन पर ज्ञान हासिल कर अपने ज्ञान से समस्त जगत में कल्याण का मार्ग प्रस्तुत किया। उन्होंने करीब 61 रचनाएंँ लिखी जिसमें 'बीजक' ग्रंथ सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

             संत काव्य परम्परा में कबीर का सबसे बड़ा हाथ है। उस युग में कबीर दास अन्य संत कवियों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते थे। अपने युग और समाज की विषमताओं के प्रति जागरूक रहकर उन्होंने चिरंतन सत्य को अपनी सीधी-सादी वाणी में व्यक्त किया। मानव के कल्याण को ध्यान में रखते हुए उन्होंने वही कहा जो उनके अंत करण ने उन्हें कहने को प्रेरित किया। उन्होंने हिंदुओं के मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा आदि का विरोध किया है तो मुसलमानों द्वारा रखे गए रोजा नमाज को फटकारा है।इस विषय में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है:

"कबिरा दुनिया बावरी, पाथर पूजन जाय।

घर की चकिया कोई ना पूजै, जाका पीसा खाय।।"


"कंकड़ पाथर जोरि के मसजिद लई बनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दै, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।" 


      लेकिन उन्होंने राम और रहीम की एकता स्थापित कर पारस्परिक प्रेम, सौहार्द और अहिंसा का समर्थन किया है। कबीर दास ने गुरु को ईश्वर से बड़ा माना है। उनका कहना है कि प्रभु की कृपा तभी होती है जब गुरु की कृपा होती है। अर्थात उन्होंने गुरु को भगवान से अधिक बढ़कर माना है। कबीर  जात पात और वर्ग भेद के कट्टर विरोधी थे। उनकी अमृतवाणी इतनी सरल और सुबोध हुआ करती थी कि सभी उनकी वाणी से प्रभावित हो जाते। इनकी भाषा सधुक्कड़ी या खिचड़ी भाषा है। अतः हम यह कह सकते हैं कि कबीर दास निर्गुण संत भक्ति के प्रवर्तक थे। जिनकी अमरवाणी आज भी उतनी ही प्रसिद्ध है जितनी मध्य काल में हुआ करती थी।


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Reetesh Das

(M.A in Hindi)


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