आदिकाल

विषय : परिस्थितियांँ


1. आदिकाल की परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।

अथवा

2. आदिकाल की पृष्ठभूमि स्पष्ट करते हुए तत्कालीन परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर: किसी भी काल के साहित्येतिहास को समझने के लिए उस समय के परिवेश को ठीक प्रकार से समझना अत्यंत आवश्यक होता है। इस दृष्टि से आदिकालीन के इतिहास के साथ तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्थितियों को जानना अपेक्षित है। अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में इस काल का साहित्य चारण एवं भाटो द्वारा रचा गया साहित्य है और उसमें आश्रयदाता वीर नरेशों के पराक्रम का ही अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन रहा है। अतः हम इस काल की विभिन्न परिस्थितियों का आकलन निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से समझेंगे-

(क) राजनीतिक परिस्थितियांँ :- आदिकाल का राजनीतिक इतिहास राजपूती शासन के उत्थान-पतन का इतिहास और मुसलमानों के आक्रमण एवं उनके शासन की स्थापना का इतिहास है। इस काल में भारतवर्ष में किसी एक सुदृढ़ एवं केंद्रीय शासन का अभाव था। संपूर्ण राष्ट्र छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त था और इन के शासकों में भी एकता के स्थान पर पारस्परिक विरोध था।

भारत के इतिहास में सबसे अभागा युग सं. 707 को माना गया है। क्योंकि हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद केंद्रीय शक्ति कमजोर हो गई थी और देश टुकड़ों टुकड़ों में बट गया था। कान्य-कुब्ज को हथियाने के लिए राष्ट्रकूट, गुजरात के प्रतिहार, बंगाल के पाल शासक आपस में उलझ गए। केंद्रीय शक्ति की कमजोरी के कारण अजमेर और दिल्ली के चौहान, बुंदेल के चंदेल, त्रिपुरा के कलचुरी भी आपस में संघर्षरत करने लगे। दूसरा अभागा वर्ष देश के इतिहास में संवत् 1074 को आया जब मोहम्मद गजनबी के नेतृत्व में मुसलमानों का प्रथम आक्रमण हुआ। इस घटना ने देश की राजनीतिक धारा को ही बदल कर रख दिया। देश के कुछ शासक विदेशियों से देश की रक्षा करने में लगे हुए थे तो कुछ पड़ोसी शासक के विरुद्ध विदेशियों की मदद कर रहे थे। जनता को युद्धों एवं अत्याचारों से आक्रांत होना पड़ा। जिसके चलते धीरे-धीरे समस्त हिंदी प्रदेश में स्थित राज्य जैसे- दिल्ली, कन्नौज, अजमेर आदि पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। इस प्रकार आठवीं शताब्दी से प्रंद्रहवीं शताब्दी तक गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, लोदी वंश आदि कई अत्याचारी शासक वंश का शासन कई सौ वर्षों तक देश में चलता रहा।

राजनीति परिस्थितियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 8वीं शती से 14 वीं शती तक का यह कालखण्ड युद्ध संघर्ष एवं अशांति से ग्रस्त रहा। अराजकता, गृहक्लेश, विद्रोह एवं युद्ध के इस वातावरण में कवियों ने एक और तो तलवार के गीत गाए तो दूसरी और आध्यात्मिकता की प्रवृत्ति के कारण हठयोग, उपदेशवृत्ति एवं आध्यात्मिकता की बात कही गई। उस समय आवश्यकता ऐसे राजाओं की थी, जो मुसलमानों से लोहा ले सके।इसके लिए प्रजा तथा समाज को इस योग्य बनाना था कि देश के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा सके। जन-जन देश प्रेम की भावना पढ़ने के लिए आवश्यकता थी कि कवि गण अपनी रचना द्वारा जन-जन में शक्ति का प्राण फूंक दे।


(ख) धार्मिक परिस्थितियाँ:- ईशा की छठी शताब्दी तक देश का धार्मिक वातावरण शांत था। परंतु सातवीं शताब्दी के साथ देश की धार्मिक परिस्थितियों में परिवर्तन आरंभ हुआ। इस समय वैदिक एवं पौराणिक धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म भी इस काल में अपना प्रभाव जमा चुके थे। राजपूत राजा अहिंसामुलक जैन धर्मा एवं बौद्ध धर्म में विश्वास करते थे।

आदिकाल में धार्मिक दृष्टि से तीन संप्रदायों का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है- सिद्ध संप्रदाय, नाथ संप्रदाय एवं जैन संप्रदाय। बौद्ध धर्म का लगभग पतन हो चुका था। बौद्ध धर्म कालांतर में विकृत होकर वज्रयान बन गया था। इन वज्रयानियों को ही सिद्ध कहते थे। सिद्धों का प्रभाव निम्न वर्ग की अशिक्षित जनता पर अधिक था। हुए तंत्र-मंत्र, जादू टोना एवं चमत्कार प्रदर्शन द्वारा सामान्य जनता में अपना प्रभाव जमा रहे थे। लोगों में अहिंसा की भावना लुप्त हो गई थी। जैन मुनियों ने धार्मिक तत्वों का निरूपण अपभ्रंश भाषा में किया। स्वयंभू, पुष्पदंत, हेमचंद्र, धनपाल जैसे अनेक कवियों ने अपनी रचनायें जैन राजाओं के छत्रछाया में रहकर लिखा। बौद्ध धर्म की विकृति का प्रभाव जैन धर्म पर भी पड़ रहा था और यह भी अपने आदर्शों से दूर हट रहा था। हिंदू धर्म में भी अनेक संप्रदायों में बट गया था। शैवों में काल्पनिक मैरवी शक्ति को जगा रहा था तो लिंगायत संप्रदाय आडंबर का विरोध कर रहा था। वैष्णवों के पांचरात्र, शैवों के पाशुपत और शाक्तों त्रिपुर-सुंदरी संप्रदायों में बौद्ध धर्म की पूजा पद्धति एवं वामाचार का प्रभाव परिलक्षित हो रहा था।

अतः कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस काल में विभिन्न धर्मों के मूल रूप लुप्त हो चुके थे और उनमें विकृतियों का समावेश हो गया था। इसी बीच इस्लाम धर्म का प्रवेश हुआ और मुसलमानों की बर्बर सेना ने सभी धर्मों, संप्रदायों, मठों और मंदिरों को मटियामेट करना आरंभ कर दिया था।


(ग) सामाजिक परिस्थितियांँ:- राजनीतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के कारण समाज में विश्रृंखलता आ गई थी। जनता शासन तथा धर्म दोनों ओर से निराक्षित होती जा रही थी। पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र और जप-तप करके लोग दुर्भिक्ष महामारी एवं युद्ध के संकटों को टालना चाहते थे। इस समय समाज मोटे रूप में दो वर्गों में बट गया था- एक सेव्य और दूसरा सेवक। सेव्य वर्ग में राजा, सामंत एवं सरदारों को रखा गया और दूसरी ओर सेवक वर्ग में दास-दासी, भाट-वैश्य आदि को रखा गया। दूसरा वर्ग प्रथम वर्ग की सेवा और मनोरंजन में लगा रहता था। राजपूत जाति शासकों की जाती समझी जाती थी। यह राजपूत प्राय: स्वार्थी, अंधविश्वास, अदूरदर्शिता एवं संकीर्णता के अवगुणों का शिकार होकर देश की राजनीतिक एकता को खंडित करते रहते थे। यह राजपूत कई शाखाओं-उपशाखाओं में विभक्त होकर अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए आपस में ही युद्ध का आयोजन किया करते थे। समाज में जाति-पाति संबंधित भेद-भाव का होना स्वाभाविक था। समाज में सामंतों की हितचिंता को प्रधानता दी जाती थी, नीचे जातियों के प्रति घृणा की भावना का पर्याप्त विकास हो चुका था। समाज में स्त्रियों के प्रति पूज्य भाग नहीं था, वे मात्र भोग्या बनकर रह गई थी। स्त्रियांँ भी हंसते-हंसते अपने सुहाग की बलि देने में ही गौरव समझती थी। उस समय स्वयंवर प्रथा भी प्राय: युद्ध का कारण बन जाती थी। सुंदर-सुंदर राजकुमारियों को बलपूर्वक विवाह करने के लिए राजपूतों में युद्ध होने लगा। राजा और सामंत भी प्रजा की ओर उतना ध्यान न देकर ज्यादातर समय रंग रंगरेलियों में बिताने लगे।

इस प्रकार ध्यान से देखा जाए तो आदिकाल का सामाजिक परिवेश अंधविश्वास, स्वयंवर, सतीत्व, जाति-पाति, छुआ-छूत, जादू-टोना, मंत्र-तंत्र आदि के बीच जकड़ कर रह गया था।


(घ) साहित्यिक परिस्थितियाँ:- आदिकाल में साहित्य रचना की तीन धाराएंँ बह रही थी। एक और तो परंपरागत संस्कृत साहित्य की रचना हो रही थी, तो दूसरी ओर प्राकृत, अपभ्रंश भाषा में साहित्य का सृजन जैन कवियों के द्वारा किया जा रहा था तथा तीसरी धारा हिंदी में लिखे जाने वाले साहित्य की थी। इस समय कवियों पर बड़ा ही महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व था। एक ओर कवि लोग जन-जन में वीरता की भावना भर रहे थे और दूसरी और अपने हाथों में तलवार ग्रहण करके युद्ध में सबसे आगे जाते थे।


इस काल में संस्कृत के अंतर्गत पुराणों एवं स्मृतियों पर टिकायें लिखी गई। ज्योतिष एवं काव्यशास्त्र पर अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना की गई। 9वी से 11वीं शती तक कन्नौज एवं कश्मीर संस्कृत साहित्य के केंद्र रहे हैं। आनंदवर्द्धन, मम्मट, भोज, क्षेमेंद्र, कुंतक, राजशेखर, विश्वनाथ आदि जैसे प्रतिभाएंँ इसी युग की देन है। इस काल में अपभ्रंश प्रमुखत: धर्म की भाषा बन गई थी। जैन कवियों ने गुजरात में रहकर अनेक पुराणों को प्रणाम समेत नए रूप में विकसित किया। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, हेमचंद्र जैसे जैन कवियों ने जो साहित्य प्रस्तुत किया है, वह अपनी मौलिकता एवं साहित्यिकता के कारण उच्च कोटि का है। एक कवि वर्ग ऐसे भी थे जिन्होंने देशभाषा हिंदी में काव्य की रचना की। जिन्हें भाट या चारण कवि कहांँ गया। इस समय विभिन्न राजाओं के आश्रय में पलने वाले भाट और चारण ही काव्य रचना करते थे। इनकी कविताएंँ अतिशयोक्ति पूर्ण होती थी। इनमें अपने आश्रयदाताओं के बारे में बढ़ा चढ़ा कर प्रशंसा करने की प्रधानता थी। उस समय देश, समाज तथा राष्ट्र को लेकर उतना कुछ लिखा नहीं जाता था।


(ङ) सांस्कृतिक परिस्थितियाँ:- हिंदी साहित्य का आदिकाल उस समय आरंभ हुआ, जब भारतीय संस्कृत उत्कर्ष के चरम शिखर पर आरूढ़ हो चुकी थी और जब उसने भक्तिकाल को अपना दायित्व सौंपा उस समय तक भारत में मुसलमान संस्कृत के स्वर्ण शिखर स्थापित हो गए थे। सम्राट हर्षवर्धन के समय भारत सांस्कृतिक दृष्टि से अपने शिखर पर था। हर्षवर्धन के विशाल साम्राज्य ने हिंदू धर्म और संस्कृति को राष्ट्रव्यापी एकता का आधार दिया था। इस आधार पर छोटे-मोटे भेदभाव अस्त हो गए थे तथा स्वाधीनता एवं देश भक्ति के भाव दृढ़ होने लगे थे। संगीत, चित्र, मूर्ति विशेषतः मंदिरों का निर्माण धार्मिक सद्भाव का द्योतक था। भुवनेश्वर, खजुराहो, पूरी, सोमनाथपुर, बेलोर, कांची, तंजौर आदि स्थानों पर अनेक भव्य मंदिर आदिकाल के आरंभ के समय ही बनाए गए थे। किंतु जैसे ही कालांतर में मुस्लिम आक्रमणकारियों का आगमन हुआ भारत शनै: शनै: मुस्लिम संस्कृति से भी प्रभावित होता गया। इस काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अपने संकीर्ण दृष्टिकोण एवं धर्मांधता की भावना से प्रेरित होकर भारतीय संस्कृति के मूल केंद्रों मंदिरों, मठों एवं विद्यालयों को नष्ट करने का पूरा-पूरा प्रयास किया।फलस्वरुप मुस्लिम संस्कृत का प्रभाव आदिकालीन हिंदू संस्कृत पर अनेक क्षेत्रों में पड़ने लगा था। उत्सव, मेले, परिधान, आहार, मनोरंजन आदि अनेक बातों में मुस्लिम रंग चढ़ने लगा था।

चित्र कला के क्षेत्र में इस काल के अंत में जो थोड़ा बहुत कार्य हुआ उस पर भी मुस्लिम संस्कृत का प्रभाव पाया जाता है। हिंदू कलाकार धीरे-धीरे अपनी प्रतिभाओं को भूलते जा रहे थे। कर्मों के कारण कलाकार मुस्लिम विचारों और भावनाओं को भारतीय रेखाओं में अटपटे रंगों में भर रहे थे।

जहांँ तक मूर्तिकला का प्रश्न है, आदिकाल के आरंभ तक निर्मित अधिकांश मूर्तियां धर्म से प्रभावित होकर बनती गई। पर जैसे ही मुस्लिम शासकों का प्रभाव पड़ा, पुराने मूर्तियों को नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। कलाकार द्वारा फिर से नई मूर्तियों का निर्माण करना कम हो गया था। राजपूत राजाओ को भी मूर्तिकला के विकास के लिए न तो अवसर मिलता था और न ही उस पर उनकी रूचि थी।

संगीत के क्षेत्र में दोनों संस्कृतियों ने परस्पर आदान-प्रदान पर्याप्त मात्रा में किया है। गायन-वादन और नित्य पर मुस्लिम प्रभाव पड़ रहा था तथा अनेक वाद्ययंत्र- सारंगी, तबला, अलगोजा से हिंदू परिचित हो रहे थे।