आदिकाल
विषय: सिद्ध साहित्य
1. सिद्ध साहित्य पर संक्षिप्त टिप्पणी देते हुए इसकी प्रमुख विशेषता ओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
2. आदिकालीन सिद्ध साहित्य का परिचायात्मक विवरण देते हुए इसकी प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: भारतीय धर्म-साधना में सिद्धों का प्रादुर्भाव 8वीं शती के आस-पास माना जाता है। सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जनभाषा में लिखा, वह हिंदी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है। सिद्ध संप्रदाय वस्तुत: बौद्ध धर्म की विकृति ही है। ईशा की प्रथम शताब्दी तक आते-आते बौद्ध धर्म हीनयान और महायान नामक दो शाखाओं में विभक्त हो गया। हीनयान में सिद्धांत पक्ष की प्रधानता थी, जबकि महायान में व्यवहारिकता पर बल दिया जाता था। हीनयान केवल विरक्तों और सन्यासियों को आश्रय देता था, जबकि महायान के द्वार सबके लिए खुले थे। ऊंँच-नीच, छोटे-बड़े, गृहस्थ-सन्यासी, सबको निर्वाण तक पहुंँचने का दावा महायान शाखा का था।
राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरंभ होता है। इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोंभिपा, कण्हपा एवं कुक्कुरिपा हिंदी के मुख्य सिद्ध कवि है। अब हम संक्षेप में इनके व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय देकर साहित्य के विकास में इनकी भूमिका को स्पष्ट करने की चेष्टा करेंगे।
सरहपा: सिद्ध सरहपा आदि कालीन युग धारा के सबसे प्राचीन कवि है। उन्हें सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र आदि नामों से भी जाना जाता है। राहुल जी ने इसका समय 769 ई. माना है। इनके द्वारा रचित 32 ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें से 'दोहाकोश' हिंदी की रचनाओं में प्रसिद्ध है। इनकी भाषा सरल तथा गेय है एवं काव्य में भावो का सहज प्रभाव मिलता है। जैसे-
'नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल चिअराअ सहाये मूलक।'
इसके अलावा इनकी रचनाओं में दोहा कोश, ब्रजगीत, चर्यागीत आदि प्रमुख है। दोहा कोश का एक उदाहरण इस प्रकार है-
'जहँ मण पवण न संचरिय, रवि ससिणाहि पवेश।
तहिं चढ़ि चित्त विसाम करु, सरहे कहिय उवेश।।'
शबरपा: इनका रचनाकाल 780 ई. माना गया है। इन्होंने सरहपा से ज्ञान प्राप्त किया था। ' चर्यापद' इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। इन्होंने माया मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल दिया और उसी को महासुख की प्राप्ति का मार्ग माना है। इनकी रख कविता की कुछ पंक्तियांँ इस प्रकार है-
'हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुल
षुकड़ए सेरे कपासु फुटिला।'
लूइपा: ये राजा धर्मपाल के शासनकाल में कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे। 84 सिद्ध में इनका नाम सबसे ऊंँचा स्थान माना जाता है। इनकी कविता में रहस्य भावना की प्रधानता रहती है। जैसे-
(iii) सिद्ध साहित्य में सामाजिक विद्रोह की भावना दिखाई पड़ती है। पुरानी रूढ़ीयों के प्रति विद्रोह एवं बाह्याडम्बरों के खण्डन के साथ-साथ धर्म के पारम्परिक एवं शास्त्रसम्मत रूप का विरोध किया गया है।
'क्राआ तरुवर पंच विडाल, चंचल चीए पइठो काल।'
डोम्भिपा: इन्होंने विरुपा से शिक्षा ली थी। इनके द्वारा रचित 21 ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें 'डोम्बिगीतिका' , 'योगचर्या', 'अक्षरद्विकोपदेश' आदि विशेष प्रसिद्ध है।
कण्हपा: कण्हपा ने कुल 74 ग्रंथों का निर्माण किया है। जिनमें अधिकांश दार्शनिक विषयों पर आधारित है। रहस्यात्मक भावनाओं से परिपूर्ण गीतों की रचना करके यह हिंदी के कवियों में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने अपनी रचनाओं में शास्त्रीय रूढ़ीओ का खण्ड़न भी किया है, जिसका उदाहरण हम इस पंक्तिय से ले सकते हैं-
'आगन वेअ पुराणे, पण्डित मान बहंति।
पक्क सिरिफल अलिअ, जिम वारेरित भ्रमयंति।'
अतः इन प्रमुख सिद्ध कवियों ने हिंदी साहित्य में कविता की जो पंक्तियांँ आरंभ कि उनका प्रभात भक्ति काल तक चलता रहा। रूढ़ियों के विरोध का अक्खडपन, जो कबीर आदि की कविताओं में मिलता है, इस सिद्ध कवियों की देन है।
सिद्ध साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियांँ:
सिद्ध साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों को हम निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझेंगे-
(i) सिद्ध साहित्य में शास्त्रीय चिंतन पक्ष गौण है, एवं यहांँ साधना पर बल दिया जाता है, जिसमें गुरु के महत्व को भी स्वीकारा गया है।
(ii) सिद्ध साहित्य में मुक्ति या निर्वाण की तुलना में सिद्धियों को प्राप्त करना श्रेयस्कर बताया गया है।
(iii) सिद्ध साहित्य में सामाजिक विद्रोह की भावना दिखाई पड़ती है। पुरानी रूढ़ीयों के प्रति विद्रोह एवं बाह्याडम्बरों के खण्डन के साथ-साथ धर्म के पारम्परिक एवं शास्त्रसम्मत रूप का विरोध किया गया है।
(iv) सिद्ध साहित्य में रहस्यवादी भावना के साथ साथ योग साधना पर विशेष बल दिया गया है।
(v) चमत्कार प्रदर्शन करके कई काव्य की रचना की गई है।
(vi) सिद्ध साहित्य में ब्राह्मणवाद की पौराणिक मान्यताओं का खण्डन किया गया है।
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