आदिकाल

विषय: नाथ साहित्य


1. आदिकाली नाथ साहित्य का परिचय देते हुए इसके महत्व पर प्रकाश डालिए।

अथवा

2. आदि काली नाथ साहित्य का परिचायात्मक विवरण देते हुए गोरखनाथ पर संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर: नाथपंथियों ने पंचमकार और वाममार्गी साधना का विरोध करके जीवन को सात्विकता की ओर अग्रसर करने का उपदेश दिया था। वज्रयान से जिस प्रकार सिद्ध संप्रदाय का विकास हुआ उसी प्रकार सहजयान से नाथ संप्रदाय विकसित हुआ। राहुल जी ने नाथपंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है। पंथ के प्रवर्तक गुरु मत्येंद्रनाथ तथा गोरखनाथ माने जाते हैं। डॉ रामकुमार वर्मा ने नाथ पंथ के चरमोत्कर्ष का समय 12 वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी के अंत तक माना है। उनका मत है कि नाथपंथ से ही भक्तिकाल के संतमत का विकास हुआ था, इसके प्रथम कवि कबीर थे। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार " नाथ पंथ या नाथ संप्रदाय के सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योगसंप्रदाय, अवधूतमत एवं अवधूत-संप्रदाय नाम ही प्रसिद्ध है।" उनके इस कथन का यह अर्थ नहीं कि सिद्धमत और नाथमत एक ही है। उन्होंने तो नाम ख्याति की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसका आशय इतना ही है कि इन दोनों मार्गों को एक ही नाम से पुकारा जाता था क्योंकि मत्येंद्रनाथ कथा गोरखनाथ सिद्धों में भी गिने जाते थे।

नाथपंथ की दार्शनिकता सिद्धांत रूप से शैव-मत के अंतर्गत है और व्यवहारिकता की दृष्टि से हठयोग से संबंधित है। यह ईश्वर को 'शून्य' रूप में मानते हैं, जिसे उन्होंने अलग निरंजन भी कहा है। नाथ पंथियों ने निवृत्ति मार्ग पर विशेष बल दिया है और वैराग्य से ही मूर्ति को संभव माना है। नाथ पंथों का स्पष्ट मत है कि बिना गुरु कृपा के वैराग्य संभव ही नहीं है। अतः गुरु दीक्षा एवं गुरु मंत्र का इस संप्रदाय में विशेष स्थान है। अपने शिष्यों की कठोर परीक्षा लेने का विधान नाथपंथियों में रहा है, इसी कारण से यह धर्म अधिक व्यापक न बन सका। इन्होंने इंद्रिय निग्रह पर विशेष बल दिया है और नारी से दूर रहने की शिक्षा दी है। सिद्ध संप्रदाय में नारी के प्रति जो दृष्टिकोण था, उसका तीव्र विरोध नाथ पंथ में दिखाई पड़ता है। नाथ पंथियों ने पाखण्ड एवं बाह्याडम्बरों का खुलकर विरोध किया और नीति, सदाचार, संयम, योग आदि पर बल देते हुए इन्हें मुक्ति के लिए आवश्यक माना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाथ संप्रदाय की इन विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा है- " इस मार्ग में कठोर ब्रह्मचर्य, वाक संयम, शारीरिक शौच, मानसिक शुद्धता, ज्ञान के प्रति निष्ठा, बाह्य  आचरणों के प्रति अनादर, आंतरिक शुद्धि और मद्य-माँस आदि के पूर्ण बहिष्कार पर जोर दिया गया है।"

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाथों में नौ नाथों का जिक्र किया है जिनमें- मत्येंन्द्रनाथ, गाहनिनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, करणिपालनाथ, नागनाथ, चर्पटनाथ, रेवानाथ, भर्तृनाथ और गोपीचन्द्रनाथ आते हैं। इस सूची में गोरखनाथ का नाम न आने का कारण यह बताया गया है कि गोरखपंथियों के अनुसार गोरख ही भिन्न-भिन्न समय में अलग-अलग नामों से अवतरित हुए हैं।

नाथ साहित्य में गोरखनाथ की भूमिका:- गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरंभकर्ता माने जाते हैं। वे सिद्ध मत्येंन्द्रनाथ के शिष्य थे, किंतु उन्होंने सिद्धू के मार्ग का विरोध किया था। वे एक ऐसे अखंड नेता थे जिन्होंने किसी भी रूढ़ि पर चोट करते समय न तो रंचमात्र दुर्बलता दिखाई और न किसी से समझौता किया। विज्ञान के उपासक थे और लेशमात्र भावुकता भी सहन नहीं कर सकते थे। यही कारण है कि भक्ति और प्रेम से वे नितांत अछूते रहे। गोरखनाथ के ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है, किंतु डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने केवल 14 रचनाएं हिमानी है। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने धर्म साधना में नवीन प्राण संचार किया है। इनका साहित्य सिद्ध साहित्य और संत साहित्य के बीच की कड़ी है। इनके साहित्य में आत्मा, मान, पवन, नाद, बिंदु, सुरति, नियति का काव्यात्मक चित्रण मिलता है। इनमें ब्रह्म और माया के भी दार्शनिक चित्रण मिलते हैं। योग के संबंध में वे ब्रह्म ज्ञानियों से कहते हैं-

"तुम्बी में तिरलोक समाया, त्रिवेणी रवि चन्द्रा।

बूझो बूझो ब्रह्म गियानी, अनहद नाद अभंगा।।"

अर्थात माया की तुंबी में तीनों लोग, त्रिकुटी और सूर्य चंद्र समाए हुए हैं, इसलिए हे ब्रह्म ज्ञानियों अखंड अनहदनाद को समझो।

गोरखनाथ से पहले अनेक संप्रदाय थे जिन सबका उनके नाथ पंथ में विलय हो गया था। शैवों एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके संप्रदाय में आप मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु-महिमा, इंद्रिय-निग्रह, प्राण-साधना, वैराग्य-मान:साधना, कुंडलिनी-जागरण, शून्यसमाधि आदि का वर्णन किया है। इन विषयों में नीति और साधना की व्यापकता मिलती है।यही कारण है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन रचनाओं को साहित्य में सम्मिलित नहीं किया था। किंतु डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पक्ष को नहीं माना तथा पूर्वोंक्त विषयों के साथ जीवन की अनुभूतियों का सघन चित्रण होने के कारण इस रचनाओं को साहित्य में सम्मिलित करना ही उचित माना है। इसी साहित्य का विकास भक्ति काल में ज्ञानमार्गी संत काव्य के रूप में हुआ। अतः उसकी साहित्यिकता स्वीकार करना ही अधिक न्याय संगत है। गोरखनाथ ने ही षट्चक्रों वाला योग मार्ग हिंदी साहित्य में चलाया था। इस मार्ग में विश्वास करने वाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर और मन को शुद्ध करके शून्य में समाधि लगाता था और वही ब्राह्म का साक्षात्कार करता था। गोरखनाथ ने लिखा है कि धीर वह है, जिसका चित्त विकार साधन होने पर भी विकृत नहीं होता-

"नौ लख पातरि आगे नाचैं पीछे सहंज अखाड़ा।

ऐसे मन लै जोगी खेलै, तब अंतरि बसै भंडार।।"

गोरखनाथ की कविताओं से स्पष्ट है कि भक्तिकालीन संत मार्ग के भावपक्ष पर ही उनका प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि भाषा और छंद भी प्रभावित हुए हैं। इस प्रकार उनकी रचनाओं में हमें आदिकाल कि वह शक्ति छिपी मिलती है, जिसने भक्ति काल की कई प्रवृत्तियों को जन्म दिया। गोरखनाथ के अतिरिक्त नाथ संप्रदाय के अन्य कवियों में चौरंगीनाथ, चामरीनाथ, गोपीचंद्र नागार्जुन आदि प्रमुख है। परंतु इन कवियों की रचनाओं में यंत्र तंत्र ही मिलती है। इन सब कवियों ने प्राय: गोरखनाथ का ही अनुकरण किया है। अतः हम यह कह सकते हैं कि नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ जी है।

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि नाथ साहित्य का महत्व हिंदी साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पर्वती हिंदी साहित्य में चारित्रिक दृढ़ता, आचरण शुद्धि और मानसिक पवित्रता के जो स्वर सुनाई पड़ते हैं उनका मूल स्रोत नाथ साहित्य ही है।