आदिकाल
विषय: नामकरण
प्रश्नावली:
1. हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल का उचित नामकरण कीजिए।
अथवा
2.आदिकाल के नामकरण की समस्या पर प्रकाश डालते हुए यह बताइए कि इसे वीरगाथा काल कहना कहांँ तक उचित है?
अथवा
3.आदिकाल के नामकरण पर विभिन्न विद्वानों के मतों को प्रस्तुत करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मत की समीक्षा कीजिए। उनके द्वारा दिया गया नाम वीरगाथा काल कहांँ तक उचित है?
अथवा
4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की काल विभाजन पद्धति पर प्रकाश डालते हुए यह बताइए कि वीरगाथा काल नाम उचित क्यों नहीं है?
उत्तर: हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम कालखण्ड को वीरगाथा काल, आदिकाल, बीजवपन काल, संधि एवं चारण काल, रासो काल आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न तत्वों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है। अब हम विभिन्न विद्वानों द्वारा दिए गए मतों की समीक्षा कर इस काल का उचित नामांतरण करेंगे।
(i) वीरगाथा काल: आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने इसे वीरगाथा काल कहा है। रामचंद्र शुक्ल जी का कहना है कि साहित्य का इतिहास जनता की चित्तवृत्ति का इतिहास होता है। जनता की चित्तवृत्ति का बहुत कुछ निर्माण तदयुगीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक परिस्थितियों के अनुरूप होता है। अतः इन परिस्थितियों के सापेक्ष ही किसी विशेष कालखण्ड में विशेष प्रकार की रचनाएंँ उपलब्ध होती है। इसीलिए उन्होंने संवत 1050 से 1375 वि. तक के कालखण्ड में जो साहित्यिक रचनाएंँ हुई, उस को आधार मानते हुए इस कालखंड का नाम वीरगाथा काल रखा है।
शुक्ला जी ने वीरगाथा काल को रचनाओं के आधार पर दो भागों में बांँटा है-
(क) अपभ्रंश काव्य: इसके अंतर्गत 4 काव्य कृतियांँ आते हैं- विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता और कीर्तिपताका।
(ख) देशभाषा काव्य: इसके अंतर्गत 8 काव्य कृतियांँ आते हैं- विशालदेव रासो, खुमान रासो, पृथ्वीराज रासो, परमाल रासो, जयमयंक जसचंद्रिका, जयचंद्र प्रकाश, खुसरो की पहेलियांँ और विद्यापति पदावली।
शुक्ल जी का मत है कि इन्हीं 12 पुस्तकों की दृष्टि से प्रथम कालखण्ड का लक्षण निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमें से खुसरो की पहेलियाँ, विद्यापति पदावली और वीसलदेव रासो को छोड़कर सभी वीरगाथात्मक काव्य है। इसके अतिरिक्त इस काल की युद्ध प्रधानता तथा राजनीतिक परिस्थितियांँ भी वीरगाथा नाम को सार्थक करती है। शुक्ल जी ने मिश्र बंधुओं द्वारा दिए गए पुस्तकों का जिक्र क्या है। उनके अनुसार भगवदगीता, वृद्धनवकार, वर्तमान, रैवतगिरि रासा, संमतसार, पत्तलि, नेमिनाथ चउपई आदि यह सब तो धर्म तत्व-निरूपण-संबंधी रचनाएंँ हैं। इनमें भगवत गीता को पर्वती रचना माना गया है, तो शेष ग्रंथों को जैन धर्म का तत्व निरूपण किया गया है। अतः आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार आदिकाल की अपेक्षा वीरगाथा काल नाम अधिक सार्थक है। क्योंकि वीरगाथा काल नाम नौ प्रसिद्ध वीरगाथात्मक काव्यग्रंथों के आधार पर किया गया है।
आचार्य शुक्ल ने कालों के नामकरण में प्रधान प्रवृत्ति का जो आधार ग्रहण किया है, वह उपयोग एवं तर्कसंगत भले ही हो, किंतु विद्वानों के एक वर्ग ने उसकी तीव्र आलोचना भी की है। आलोचकों के मुताबिक शुक्ला जी ने जिन ग्रंथों के आधार पर इस काल की मूल प्रवृत्ति निर्धारित की थी, वह ग्रंथ अप्रामाणिक और अप्राप्य अथवा परवर्ती काल के सिद्ध हो चुके हैं। दूसरी ओर इस कालखंड में वीरता के अतिरिक्त अन्य प्रवृत्तियांँ भी सामान्य रूप से चलती रही। शुक्ल जी ने जिन ग्रंथों के आधार पर इसका नामकरण किया है वे खुद पृथ्वीराज रासो को लेकर कहते हैं कि यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है। जहांँ शुक्ल जी ने विद्यावती को वीरगाथा काल में स्थान दिया है, जिसकी अंतिम सीमा वे संवत् 1375 वि. निर्धारित करते हैं, जबकि विद्यापति का रचनाकाल स्वयं उन्होंने 1460 वि. स्वीकार किया है।
अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शुक्ला जी ने जिन ग्रंथों के आधार पर वीरगाथा आत्मक प्रवृत्ति की मूलभित्ति तैयार की थी, वह आज के नवीन अनुसंधानों के सामने बिल्कुल खड़े नहीं उतरते। इसीलिए इस काल को वीरगाथा काल कहना उचित प्रतीत नहीं होता।
(ii) आदिकाल :- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल को आदिकाल कहा है। वे इसे वीरगाथा काल नहीं मानते। उनका कहना है कि वीरगाथा काल के अधिकांश ग्रंथ उस काल की रचनाएं नहीं है,क्योंकि जिन 12 पुस्तकों के आधार पर शुक्ला जी ने इस काल की प्रवृत्तियों का विवेचन किया है उनमें से अधिकांश रासो काव्य सोलहवीं अथवा सत्रहवीं शताब्दी की रचनाएं प्रतीत होती है।रामचंद्र शुक्ला जी द्वारा दिए गए तत्वों के आधारों पर आपत्ति जताते हुए द्विवेदी जी कहते हैं कि अगर धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश को देखकर ग्रंथों को साहित्य सीमा से बाहर कर दिया जाए, तो हमें संस्कृत की रामायण, महाभारत, भागवत एवं हिंदी के रामचरितमानस, सूरसागर आदि साहित्यिक अनुपम ग्रंथ-रत्नों को भी साहित्य की परिधि से बाहर रखना पड़ेगा।
द्विवेदी जी ने अपने ग्रंथ 'हिंदी साहित्य का आदिकाल' में इस कालखंड को आदिकाल कहना ही उपयुक्त माना है। उनका मत है- " वस्तुतः आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन्न, परंपरा विनिर्मुक्त, काव्य-रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सजग एवं सचेत कवियों का काल है।.......... यदि पाठक इस धारणा से सावधान रहे तो यह नाम बुरा नहीं है।"
द्विवेदी जी यह भी मानते हैं कि इस काल में वीर रस को सचमुच ही प्रमुख स्थान प्राप्त है। परंतु इस काल में सिद्ध साहित्य और जैन साहित्य का प्रणाम प्रचुर मात्रा में हुआ है। इसीलिए वे इसे आदिकाल कहते हैं। वास्तव में आदिकाल नाम को विद्वानों के एक बड़े वर्ग ने किसी ना किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया है। इस नाम से उस व्यापक पृष्ठभूमि का भी बोध होता है जिस पर आगे के साहित्य का निर्माण हुआ। भाषा की दृष्टि से भी इस काल के साहित्य में हिंदी के पारंपरिक रूप की जानकारी मिलती है। अतः इन सब दृष्टि के आधार पर आदिकाल नामकरण अधिक व्यापक एवं उपयुक्त है।
(iii) बीज-वपन काल: आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल को बीज-वपन काल कहा है। उनका कहना है कि इस काल में साहित्य के बीज भर बोए गए थे। अर्थात पर्वती साहित्य में प्राप्त होने वाली प्रवृत्तियांँ इस काल में प्रारंभ हुई थी। परंतु यह एक भ्रांतिपूर्ण धारणा है, क्योंकि इस काल से संबंधित जो रचनाएं मिली है उनसे अनेक भ्रामक धारणाएं निर्मूल हो गई है और अनेक प्रवृत्तियां उभर कर सामने आई है। इस काल में उपलब्ध होने वाली प्रवृत्तियां इनसे पूर्ववर्ती प्राप्त होने वाली अपभ्रंश, प्राकृत साहित्य की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप है। भाषा की दृष्टि से अवश्य यहां परिवर्तन हुआ क्योंकि हिंदी भाषा अपना रूप ग्रहण कर रही थी, किंतु साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से यह पूर्ववर्ती परंपरा का ही विकास है। अतः इस स्थिति में इससे बीज-वपन काल न कहकर आदिकाल कहना ही अधिक उचित है।
(iv) संधि एवं चारण काल:- डॉ रामकुमार वर्मा जी ने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को संधि एवं चारण काल कहा है। उन्होंने इस काल को दो भागों में विभक्त किया है-
(क) संधि काल ( संवत् 750 वि. - 1000 वि.)
(ख) चारण काल ( संवत् 1000 वि. - 1375 वि.)
उन्होंने संवत् 750 से 1000 तक की बौद्ध, जैन तथा सिद्धों की कविताओं को संधि काल में रखा है और संवत् 1000 से 1375 तक के काल को हिंदी के चारण काल नाम से अभिहित किया है। संधि काल में वैदिक तथा बौद्ध धर्म तथा दो भाषाओं अपभ्रंश तथा हिंदी का संधि युग था। इसका यह नामकरण उचित और सार्थक प्रतीत होता है, परंतु चारण काल नामकरण उचित नहीं है। क्योंकि चारण काल में और वीरगाथा काल में कोई तात्विक अंतर नहीं है। चारण के अंतर्गत वह कवि आते हैं जिन्होंने वीरगाथाएंँ लिखी थी। चारण काल में 17 वी. शताब्दी की भी कुछ रचनाएं मिलते हैं, जबकि डॉ वर्मा स्वयं इसकी सीमा संवत् 1375 तक ही मानते हैं। इसीलिए इसे भी संधि एवं चारण काल कहना उचित नहीं है।
निष्कर्ष: अतः हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल के नामकरण पर विभिन्न विद्वानों द्वारा दिए गए मतों की समीक्षा करने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि इस काल के लिए सर्वाधिक उपयुक्त नाम आदिकाल ही है। क्योंकि एक ओर तो इस नाम में किसी एक प्रवृत्ति को प्रधानता देकर शेष को गौण मान लेने का दोष नहीं है, दूसरी और यह उन सभी प्रवृत्तियों का बोधक है जो परवर्ती हिंदी साहित्य में प्रचुरता से विकसित हुई। इसलिए हिंदी साहित्य के प्रथम काल को आदिकाल कहना ही अधिक उचित है।
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