आदिकाल

विषय: रासो साहित्य


1. आदिकाल में लिखे गए प्रमुख रासो ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

अथवा

2. 'रासो' शब्द का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए और हिंदी की ऐतिहासिक रासो काव्य परंपरा के प्रमुख ग्रंथों का परिचय दीजिए।

उत्तर: हिंदी साहित्य के आदिकाल में रचित जैन 'रासकाव्य' वीरगाथाओं के रूप में लिखित रासोकाव्यों से भिन्न है। इन दोनों रचनाओं का विकास अलग-अलग शैलियों में हुआ है। जैन रासकाव्य में धार्मिक दृष्टि के प्रधान होने से वर्णन कि वह पद्धति प्रयुक्त नहीं हुई, जो वीरगाथापरक रासो ग्रंथों में मिलती है।

ऐतिहासिक रासो-काव्य परम्परा के अंतर्गत वे ग्रंथ है, जिन्हें वास्तविक रूप से आदिकालीन हिंदी रासो-काव्य परम्परा में स्थान दिया जा सकता है। चारण कवियों द्वारा रचित वीरगाथा काव्य इसी वर्ग के अंतर्गत आते हैं। हिंदी रासो-काव्य परम्परा के अंतर्गत आने वाले ग्रंथों की सूची इस प्रकार है-

(i) वीशालदेव रासो

(ii) पृथ्वीराज रासो

(iii) परमाल रासो

(iv) बुद्धि रासो

(v) विजयपाल रासो

(vi) हम्मीर रासो

(vii) खुमान रासो

रासो काव्यों को देखने से पता चलता है कि ऐतिहासिक रासो काव्य परंपरा के कवि प्राय:राज्यश्रित थे जिसका उद्देश्य अपने आश्रयदाता के शौर्य एवं ऐश्वर्य की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करना था। यही कारण है कि इन ग्रंथों में मध्यकालीन राजाओं का भी वर्णन मिलता है तथा भाषा में भी उत्तरवर्ती भाषा रूपों की झलक भी पाई जाती है। वीर एवं श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति इस रासो-ग्रंथों में प्रधान रूप से हुई है। इसमें पुरानी राजस्थानी एवं अपभ्रंश मिश्रित डिंगल भाषा का प्रयोग करने के साथ-साथ अपभ्रंश मिश्रित ब्रजभाषा अर्थात पिंगल का भी प्रयोग हुआ है। वीर रस की सहज अभिव्यक्ति एवं मध्यकालीन सामंतवादी जीवन के यथार्थ चित्रण की दृष्टि से रासो काव्य परंपरा के ग्रंथ महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। अतः ऐतिहासिक रासो काव्य परंपरा के कवि प्राय: राज्यश्रित थे जिसका उद्देश्य अपने आश्रयदाता के शौर्य एवं ऐश्वर्य की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करना था। इस दृष्टि से रासो ग्रंथ की रचनाएंँ प्रवृत्ति-स्तुतिपराग अर्थात दरबारी थी। इनमें राजस्तुति, युद्ध वर्णन, केलिविलास, बहु विवाह, विजय उन्माद के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। अब हम इस काव्य परंपरा के प्रमुख ग्रंथों का परिचय निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर करेंगे-


(क) खुमान रासो: खुमान रासो के रचयिता दलपति विजय जी है। इस ग्रंथ का चरित-नायक मेवाड़ का राजा खुमान द्वितीय है। अनु रासो काव्य ग्रंथों की भांति इसका रचनाकाल भी संदिग्ध है, क्योंकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसको नवीं शताब्दी की रचना माना है, तो राजस्थान के वृत्तसंग्राहकों ने इसको 17 वीं शताब्दी की रचना बताया है। आचार्य शुक्ल का मत ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि इसमें आदिकालीन हिंदी का स्वरूप सुरक्षित है। इस ग्रंथ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना-संग्रहालय में उपलब्ध है। इस ग्रंथ की रचना लगभग 5000 छंदों में की गई है। वस्तुवर्णनों के अंतर्गत नायिका भेद एवं षडऋतु वर्णन का समावेश भी किया गया है। यद्यपि वीर रस ही गलत का प्रधान रस है तथापि श्रृंगार के मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्र भी इसमें उपलब्ध होते हैं। अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियों को समाविष्ट किए हुए इस ग्रंथ में विविध छंदों का प्रयोग किया गया है।


(ख) वीशालदेवरासो: इस ग्रंथ की रचना नरपति नाल्ह नामक कवि ने 1212 ईस्वी में की थी। कुछ वृत्तसंग्राहको ने इस ग्रंथ को भी आदिकाल की रचना नहीं माना। यह संभव है कि इसमें भी कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, किंतु उससे इसकी प्राचीनता समाप्त नहीं हो जाती। वीशालदेवरासों में तथ्य कम है और कल्पना अधिक है। यद्यपि इसकी रचना आदिकाल में हुई है, तथापि अन्य रासो-काव्यों कि भांति वीरगाथात्मक कृति न होकर एक विरह काव्य है जिसका मूल रूप वस्तुतः गेय-काव्य का था। गेय-काव्य होने के कारण इसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा।

वीशालदेवरासो हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ कार्य कृति है। इसमें भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा विशालदेव तृतीय के विवाह, वियोग एवं पूनर्मिलन की कथा सरस शैली में प्रस्तुत की गई है। प्रथम खंड में अजमेर के राजा विग्रराज चतुर्थ (वीशालदेव) का परमारवंशी राजा भोज की कन्या राजमती से विवाह करना दिखाया गया है। द्वितीय खंड में रानी के वंग से रुष्ट राजा के उड़ीसा चले जाने की कथा है। 12 वर्ष तक वीशालदेव उड़ीसा में रहता है और उसके वीरा में रानी राजमती अत्यधिक वेदना का अनुभव करती है। रानी का यह विरह-वृतांत तृतीय खंड में वर्णित है। चतुर्थ खंड में इन दोनों के पुनर्मिलन का वृतांत है। अतः चार खंडों में विभाजित इस ग्रंथ में लोक जीवन के आचार-विचार, संस्कार-विश्वास, शकून-अपशुकुन आदि का चित्रण बड़े ही स्वाभाविक ढंग से हुआ है।


(ग) पृथ्वीराज रासो: हिंदी के इस सर्वप्रथम महाकाव्य के रचयिता महाकवि चंदबरदाई है। इनकी रचना काल सम्वत 1225 से 1239 तक मानी जाती है। चंदबरदाई का जन्म 1206 के आसपास लाहौर में हुआ था। इनके पिता जाती के भाट थे। ये पृथ्वीराज के सहपाठी और बाल साथी थे। इसी संबंध में वह पृथ्वीराज के दरबारी कवि बने और 'पृथ्वीराज रासो' की रचना की। जब गोरी पृथ्वीराज को पकड़कर गजनी ले गया तब कवि चन्द भी उनके साथ गजनी गए थे। जाते समय उन्होंने 'पृथ्वीराज रासो' ग्रंथ को अपने पुत्र जल्हण को सौंप गए थे।


कहांँ जाता है कि जल्हण ने चंद के अधूरे महाकाव्य को पूर्ण किया था-

"रघुनाथ चरित हनुमंत कृत, भूप भोज उद्धरिय जिमि।

प्रथिराज सुजस कवि चन्दकृत, चन्द नन्द उद्धरिय तिमि।।"

कह प्रसिद्ध है कि चंद ने स्वामी के हितार्थ अपना बलिदान किया था। वह बहुत प्रतिभाशाली, दूरदर्शी, वीर तथा स्वामिभक्त कवि था। पृथ्वीराज उसे सदा अपने सखा के समान साथ रखते थे एवं उनकी हर एक बात मानती भी थे।


'पृथ्वीराज रासो' में वीर, रूद्र और श्रृंगार कई भावों की व्यंजना हुई है। परंतु इसका वीर रस सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सजीव है। युद्ध के हर क्रियाकलाप और व्यापार को कवि ने बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। श्रृंगार चित्रण में कवि ने रूप सौंदर्य पर ही ध्यान केंद्रित किया है। पृथ्वीराज रासो की भाषा संस्कृत, प्राकृत, ब्रजभाषा, अपभ्रंश और पैशाची  से युक्त है। इसमें अरबी, फारसी के शब्दों का भी अभाव नहीं है। इसकी शैली रासक शैली है, जिसमें चित्रमयता, वर्णनात्मकता, कविता की प्रधानता है। इतना होने पर भी इस ग्रंथ की प्रामाणिकता संदिग्ध है। अधिकांश विद्वान इसको  अप्रामाणिक रचना मानते हैं। अप्रामाणिकता का मूल कारण इसकी अनैतिहासिकता, भाषा शैली तथा वर्णन प्रसंग बताया जाता है। किंतु यह मानना ही होगा कि भले ही यह ग्रंथ अनैतिहासिक है, परंतु अनेकानेक काव्य सौष्ठव से परिपूर्ण यह हिंदी का आदि महाकाव्य है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कहना है कि "  " 'रासो' एकदम जाली पुस्तक नहीं है। उसने बहुत अधिक प्रेक्षप होने से उसका रूप विकृति अवश्य हो गया है, परंतु इस विशाल ग्रंथ में कुछ सार भी अवश्य है। इसका मूल रूप अवश्य ही साहित्य और भाषा के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा।"


(घ) परमाल रासो: उत्तर प्रदेश में 'आल्हखंड' के नाम से जो काव्य  प्रचलित है वही 'परमाल रासो' के मूल रूप का विकसित रूप माना जाता है। परमाल रासो का रचयिता कवि जगानिक था, जिसे चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव का दरबारी कवि माना जाता है। आल्हा और ऊदल नामक दो क्षत्रिय सामंतों की वीरता का वर्णन परमाल रासो के अंतर्गत प्रमुख रूप से किया गया है। उत्तर प्रदेश में इसे 'आल्हा' या 'आल्हखंड' के नाम से जाना जाता है तथा यह अपनी गेयता  के कारण अब तक लोक-काव्य के रूप में समादृत है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है कि "जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के गांँव-गांँव में सुनाई पड़ते हैं।........ यह गूंँज मात्र है मूल शब्द नहीं।"

इसमें वीर भावना का जितना प्रौढ़ रूप मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। आज भी जब इसे गायब संगीत के साथ गाते हैं, तब दुर्बलों में भी तलवार चलाने की स्फूर्ति आ जाती है। विवाह और शत्रु प्रतिशोध वीरता के प्रदर्शन का आधार रहे हैं। युद्धों के अत्यंत प्रभावशाली वर्णनों की इस काव्य में भरमार है। गेयता का गुण इस काव्य को विकसनशील लोकगाथाकाव्य की श्रेणी में ले जाता है, किंतु इसकी रचना लोकगाथा के रूप में न होकर युद्ध काव्य के रूप में ही हुआ है। मुलत: यह कन्नौजी भाषा में लिखा गया है, परंतु देश-काल के कारण इसकी भाषा बदलती गई। उत्तर भारत में यह बरसात में अधिक गाया जाता है। इसमें साहित्यिक सौंदर्य का अभाव होते हुए भी शौर्य और श्रृंगार की सुंदर योजना है-


"बारह बरिस ले कुकुर जीवें, औ सोलह तक जिए सियार।

बरस अठारह क्षत्री जीयें, आगे जीवन को धिक्कार।"

अतः उपर्युक्त ऐतिहासिक रासो काव्य एवं परंपराओं का विवेचन करके हम यह कह सकते हैं कि आदिकालीन रासो साहित्य की प्रमाणिकता पर भले ही प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं, परंतु इन काव्य ग्रंथों के काव्य-सौष्ठव पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। वीर रस की जैसी ओजपूर्ण अभिव्यक्ति इनमें हुई है वैसी परवर्ती साहित्य में भी दुर्लभ है।