Chapter 12

                                                                   रवीन्द्रनाथ ठाकुर


प्रश्न 1.बच्चों के मन की वृद्धि के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर-
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, केवल आवश्यक और सीमित शिक्षा देने से बच्चों के मन का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। बच्चों को सीखने के साथ-साथ स्वतंत्रता और स्वाधीनता का अनुभव भी देना आवश्यक है, तभी उनकी चेतना और मानसिक क्षमता का सही विकास संभव है।

प्रश्न 2.आयु बढ़ने पर भी बुद्धि की दृष्टि में वह सदा बालक ही रहेगा। कैसे?
उत्तर-
रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह विचार है कि यदि बच्चों को केवल जरूरी ज्ञान दिया जाए और उन्हें स्वतंत्र सोच का अवसर न मिले, तो भले ही उनकी आयु बढ़ जाए, उनकी बुद्धि और समझ हमेशा बालक जैसी ही रहेगी। स्वतंत्रता और स्वाधीनता का अनुभव न मिलने से उनकी मानसिक परिपक्वता विकसित नहीं हो पाती।

प्रश्न 3.बच्चों के हाथ में यदि कोई मनोरंजन की पुस्तक दिखाई पड़ी तो वह फौरन क्यों छीन ली जाती है? इसका क्या परिणाम होता है?
उत्तर-
रवीन्द्रनाथ टैगोर बताते हैं कि हमारे बच्चों को केवल व्याकरण, शब्दकोष और भूगोल जैसी औपचारिक किताबें ही दी जाती हैं; मनोरंजन या अन्य रचनात्मक पुस्तकें उनके पास नहीं होती। जैसे दूसरे देशों के बच्चे अपनी उम्र में खेल-खेल में आनंद लेते हैं, वहीं हमारे बच्चे स्कूल में बेंच पर बैठकर शिक्षक की कठोर शिक्षा और डाँट सहते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके मन की मानसिक पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है और उनकी कल्पनाशीलता तथा बौद्धिक विकास अपूर्ण रह जाता है।

प्रश्न 4.“हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनन्द का स्थान नहीं होता।” आपकी समझ से इसकी क्या वजह हो सकती है?
उत्तर-
मेरी समझ में टैगोर यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि बच्चों को केवल किताबों और पाठ्यक्रम तक सीमित कर दिया गया है। जैसे भोजन बिना पचाए शरीर को लाभ नहीं देता, वैसे ही शिक्षा भी बिना आनंद के बच्चों के मन और बुद्धि पर असर नहीं डालती। आनंद के साथ पढ़ाई करने से बच्चों की ग्रहणशक्ति, चिन्ताशक्ति और बौद्धिक विकास सहज और सशक्त रूप से होता है।

प्रश्न 5.हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत क्यों नहीं होती?
उत्तर-
टैगोर ने कहा है कि अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा हमारे बच्चों के लिए अपरिचित होती है। इसमें शब्द, पद और भावपक्ष हमारी मातृभाषा से भिन्न होते हैं। इसलिए बच्चे अर्थ को समझने से पहले ही रटना शुरू कर देते हैं। जैसे बिना चबाए भोजन निगलना हानिकारक होता है, वैसे ही विदेशी भाषा में पढ़ाई से उनका मन किसी वास्तविक अनुभव या स्मृति से जुड़ नहीं पाता और सीखने में आनंद नहीं मिलता।

प्रश्न 6.अंग्रेजी भाषा और हमारी हिन्दी में सामंजस्य नहीं होने के कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर-
टैगोर ने बताया है कि अंग्रेजी और हिन्दी में सामंजस्य नहीं होने के कई कारण हैं। शिक्षक स्वयं अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में पूर्ण रूप से पारंगत नहीं होते, इसलिए बच्चों को केवल रटने की शिक्षा मिलती है, न कि वास्तविक समझ। अंग्रेजी भाषा का शब्द, व्याकरण और भावपक्ष हमारी मातृभाषा से भिन्न होने के कारण बच्चों के लिए अप्राकृतिक और कठिन हो जाता है। इसके साथ ही विदेशी साहित्य और जीवन की परिस्थितियाँ उनके अनुभव से मेल नहीं खातीं, जिससे उनकी कल्पना और स्मृति जाग्रत नहीं होती। बालकों को खेल-खुद और स्वाधीनता का अवसर नहीं मिलता, और उनकी मानसिक शक्ति और चेतना का विकास सीमित रह जाता है।

प्रश्न 7.लेखक के अनुसार प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए क्या आवश्यक हैं?
उत्तर-
लेखक के अनुसार बच्चों को प्रकृति के स्वराज्य तक पहुँचाने के लिए केवल याददाश्त पर निर्भर नहीं होना चाहिए। बाल्यकाल से ही उन्हें चिंतन-शक्ति, कल्पना-शक्ति और स्वाधीन अनुभव का अवसर दिया जाना चाहिए। शिक्षा केवल कड़वी याददाश्त नहीं बल्कि खेल, जीवन, रहन-सहन, संस्कृति और वास्तविक अनुभवों से जुड़ी होनी चाहिए। तभी बच्चे प्रकृति के स्वराज्य का आनंद ले सकते हैं और मनुष्यत्व का पूर्ण विकास कर सकते हैं; अन्यथा, वे केवल शुष्क ज्ञान के बोझ तले भटकते रहेंगे।

प्रश्न 8.जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए क्या आवश्यक है? 

उत्तर-लेखक के अनुसार जीवन-यात्रा पूरी और सफल बनाने के लिए बाल्यकाल से ही भाषा और भाव की शिक्षा साथ-साथ दी जानी चाहिए। केवल शब्द और पाठ्यक्रम पर ध्यान देने से नहीं, बल्कि बच्चों को अनुभव, कल्पना और चिंतन-शक्ति के साथ जीवन के वास्तविक अनुभवों का अवसर देना जरूरी है। शिक्षा में समाज, संस्कृति, प्रकृति, आकाश-पृथ्वी, खेत-खलिहान, संगीत और सौंदर्य का समावेश होना चाहिए। तभी हमारा व्यवहार सहज और मानवीय बनता है और जीवन-यात्रा संतुलित एवं पूर्ण रूप से संपन्न हो पाती है।

प्रश्न 9.रीतिमय शिक्षा का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार रीतिमय शिक्षा का मतलब है कि जो वस्तु या ज्ञान बच्चे के हाथ में आता है, उसका केवल संग्रह नहीं करना, बल्कि उसका वास्तविक प्रयोग सीखना, उसका स्वाभाविक परिचय समझना और जीवन के अनुभवों के साथ जोड़ना। बच्चों को केवल यादाश्त पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें चिंतन-शक्ति और कल्पना-शक्ति को स्वतंत्र रूप से प्रयोग करने का अवसर भी मिलना चाहिए।

प्रश्न 10.शिक्षा और जीवन एक-दूसरे का परिहास किन परिस्थितियों में करते हैं?
उत्तर-
रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार, तब जब हमारी शिक्षा केवल किताबों तक सीमित रह जाती है और जीवन के वास्तविक अनुभवों से उसका कोई संबंध नहीं होता। नीरस, यथार्थहीन और आर्टिफिशियल शिक्षा में हम केवल ज्ञान का दिखावा करते हैं, लेकिन उसका असली असर हमारे व्यवहार और सोच पर नहीं पड़ता। हम विलायती ज्ञान को ले कर घमंड करते हैं, जबकि हमारे आंतरिक जीवन और चरित्र के साथ उसका कोई मेल नहीं होता। ऐसे में शिक्षा और जीवन एक-दूसरे का विरोधी बन जाते हैं, और एक-दूसरे का परिहास करने लगते हैं।

प्रश्न 11.मातृभाषा के प्रति अवज्ञा की भावना लोगों के मन में किस तरह उत्पन्न होती है?
उत्तर-
रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार, मातृभाषा के प्रति अवज्ञा तब उत्पन्न होती है जब बचपन में हमें भाषा के साथ भाव और अनुभव से जोड़कर शिक्षा नहीं दी जाती। बड़े होने पर परिस्थिति उल्टी हो जाती है—भाव होते हैं, लेकिन भाषा नहीं। इस असंगति के कारण हमारे विचार और मातृभाषा के बीच दूरी बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप लोग अपनी मातृभाषा से कटते हैं, उसका आदर नहीं करते और मन में अवज्ञा की भावना विकसित हो जाती है।

व्याख्याएँ

प्रश्न 12.
(क) “हम विधाता से यही वर मांगते हैं-हमें क्षुधा के साथ अन्य, शीत के साथ वस्त्र, भाव के साथ भाषा और शिक्षा के साथ शिक्षा प्राप्त करने दो।”

उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ रवींद्रनाथ टैगोर के निबंध ‘शिक्षा में हेर-फर’ से हैं। यहाँ लेखक बड़े ही सूक्ष्म ढंग से यह व्यक्त कर रहे हैं कि जीवन में भौतिक और मानसिक असंतुलन होने पर मनुष्य कभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं रह पाता। जैसे सर्दी में गर्म कपड़े और गर्मी में ठंडा कपड़ा न होना, उसी प्रकार शिक्षा, भाषा और भाव की कमी भी जीवन को अधूरा बनाती है। टैगोर ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हमें प्रत्येक आवश्यकता के साथ उसका पूरा अनुभव और संतुलन प्राप्त हो। वे इसे पानी में तड़पती मछली के उदाहरण से समझाते हैं—पानी है लेकिन प्यास नहीं बुझती; आँसू टपकते हैं, पर पीड़ा कम नहीं होती। इस प्रकार लेखक जीवन में पूर्णता और संतुलन की महत्वता स्पष्ट करते हैं।

(ख) “चिंता-शक्ति और कल्पना-शक्ति दोनों जीवन यात्रा संपन्न करने के लिए अत्यावश्यक है।”
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ रवींद्रनाथ टैगोर के निबंध ‘शिक्षा में हेर-फेर’ से हैं। लेखक का कहना है कि जीवन को सफल और पूर्ण बनाने के लिए केवल ज्ञान का संग्रह करना ही पर्याप्त नहीं है; सोचने की शक्ति (चिंता-शक्ति) और कल्पना की शक्ति (कल्पना-शक्ति) दोनों का विकास होना अनिवार्य है। यदि बाल्यकाल से ही इन दोनों शक्तियों को सक्रिय नहीं किया गया तो बड़े होकर मनुष्य अपने जीवन में सृजनात्मकता और निर्णय क्षमता में कमी महसूस करेगा। हमारे स्कूलों में शिक्षा केवल याद करने तक सीमित रहती है, लेकिन सोचने और कल्पना करने का अवसर कम ही मिलता है। इसलिए वास्तविक मानव विकास के लिए ये दोनों शक्तियाँ समान रूप से और लगातार अभ्यास के माध्यम से विकसित करनी आवश्यक हैं।

प्रश्न 13.वर्तमान शिक्षा प्रणाली का स्वाभाविक परिणाम क्या है?
उत्तर-
लेखक के अनुसार, वर्तमान शिक्षा प्रणाली का स्वाभाविक परिणाम यह है कि बच्चों के मन में पढ़ाई के दौरान कोई वास्तविक समझ या स्मृति नहीं बन पाती। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा पढ़ाते समय बच्चों के सामने कोई परिचित अनुभव या चित्र नहीं होता, इसलिए उनका मन अर्थ को अनुभव के बजाय मात्र रूप से टटोलता रहता है। शिक्षक स्वयं भी न तो स्वदेशी भाषा अच्छी तरह जानते हैं और न ही अंग्रेजी, इसलिए बच्चों को पढ़ाने की बजाय उनका समय व्यर्थ गुजरता है। परिणामस्वरूप शिक्षा और जीवन के बीच सामंजस्य नहीं बन पाता, और बच्चों की सोचने, समझने और सृजनात्मक शक्ति कमजोर रह जाती है।

प्रश्न 14.अंग्रेजी हमारे लिए काम-काज की भाषा है, भाव की भाषा नहीं। कैसे?
उत्तर-
लेखक के अनुसार, अंग्रेजी विदेशी भाषा है और इसे मुख्य रूप से काम-काज या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसके शब्द-संरचना और पद-संरचना हमारी मातृभाषा से अलग हैं। भावनाओं और सांस्कृतिक अनुभवों के दृष्टिकोण से भी यह अपरिचित है। इसलिए पढ़ाई के दौरान बच्चों का मन अर्थ और अनुभव के बजाय केवल रटने पर मजबूर होता है। जबकि अपनी मातृभाषा से ही हमारी संस्कृति, संवेदनाएँ और आचार-विचार जीवित रहते हैं और भाव की भाषा का विकास संभव होता है।

प्रश्न 15.आज की शिक्षा मानसिक शक्ति का हस कर रही है। कैसे? इससे छुटकारे के लिए आप किस तरह की शिक्षा को बढ़ावा देना चाहेंगे?
उत्तर-
लेखक के अनुसार, हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बाल्यकाल से ही आनंद और स्वाभाविक रुचि का स्थान नहीं है। बच्चों को केवल आवश्यक बातें रटने पर मजबूर किया जाता है। इससे काम तो चल जाता है, लेकिन उनकी मानसिक और बौद्धिक शक्ति का सही विकास नहीं होता। जैसे पेट केवल भोजन से भरा जाता है, पर भोजन को ठीक से पचाने के लिए हवा भी जरूरी है, वैसे ही शिक्षा में आनंद, स्वाधीनता और अनुभव भी आवश्यक हैं।

इसलिए मानसिक शक्ति के सही विकास और इस ह्रास से मुक्ति के लिए मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि बच्चे स्वाभाविक रूप से सोचने, समझने और कल्पना करने की क्षमता विकसित कर सकें।

नीचे लिखे गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें।

1. अंग्रेजी विदेशी भाषा है। शब्द-विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं है। भावपक्ष और विषय-प्रसंग भी विदेशी होते हैं। शुरू से आखिर तक सभी अपरिचित चीजें हैं, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरंभ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया अन्य निगलने से होता है। शायद बच्चों की किसी ‘रीडर’ में Hay-Making का वर्णन है। अंग्रेज बालकों के लिए यह एक सुपरिचित चीज है और उन्हें इस वर्णन से आनंद मिलता है। Snowball से खेलते हुए Charlie का Katie से कैसे झगड़ा हुआ, यह भी अंग्रेज बच्चे के लिए कुतूहलजनक घटना हैं लेकिन हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा में यह सब पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होता। अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रह जाता है। 

(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
उत्तर- पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर

(ख) किस दृष्टि से अंग्रेजी का हमारी भाषा के साथ सामंजस्य नहीं है, और क्यों?
उत्तर-अंग्रेजी हमारी भाषा के साथ इसलिए सामंजस्य नहीं रखती क्योंकि यह पूरी तरह विदेशी है। इसके शब्द, वाक्य रचना, भाव और विषय-वस्तु हमारे लिए अपरिचित हैं। इसलिए किसी भी दृष्टि से अंग्रेजी और हमारी मातृभाषा में मेल या तालमेल स्थापित नहीं हो पाता।

(ग) अंग्रेज बालकों के लिए क्या एक चीज सुपरिचित है और इससे बच्चों को क्या मिलता है?
उत्तर-अंग्रेज बालकों के लिए उनकी रीडर में ‘Hay-Making’ का वर्णन पूरी तरह परिचित है। यह उनके लिए रोज़मर्रा की जीवन गतिविधि से जुड़ा हुआ विषय है। इसलिए इसे पढ़कर उन्हें आनंद और सहजता महसूस होती है, क्योंकि वे इसके अर्थ और परिवेश से पहले से ही परिचित हैं।

(घ) बच्चों का मन अंधभाव से क्या टटोलता रह जाता है?
उत्तर-जब हिंदी या किसी भारतीय भाषा बोलने वाले बच्चे अंग्रेजी पढ़ना शुरू करते हैं, तो वे उस विदेशी भाषा की बातों और भावों को पूरी तरह नहीं समझ पाते। उनके मन में उससे संबंधित कोई स्पष्ट चित्र नहीं बन पाता। परिणामस्वरूप, उनका मन अर्थ को बिना स्पष्ट समझ के, बस अनुमान और अंधभाव से टटोलता रहता है।

(ङ) बच्चे किसी चीज को कब रटने लगते हैं और इसका उनपर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-बच्चे तब किसी विषय को रटना शुरू कर देते हैं जब उनके मन में उसके बारे में कोई स्पष्ट समझ या धारणा नहीं बन पाई होती। ऐसे रटना उनके लिए ठीक उसी तरह हानिकारक होता है जैसे बिना चबाए भोजन निगल लेना—उनका मानसिक पाचन अधूरा रह जाता है और वे वास्तव में सीख नहीं पाते।

2. हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनंद के लिए स्थान नहीं होता। जो नितांत आवश्यक है उसी को हम कंठस्थ करते हैं। इससे काम तो किसी-न-किसी तरह चल जाता है, लेकिन हमारा विकास नहीं होता। हवा से पेट नहीं भरता-पेट तो भोजन से ही भरता है। लेकिन भोजन को ठीक से हजम करने के लिए हवा आवश्यक है। वैसे ही, एक “शिक्षा पुस्तक’ को अच्छी तरह पचाने के लिए बहुत-सी पाठ्यसामग्री की सहायता जरूरी है। आनंद के साथ पढ़ते रहने से पठन-शक्ति भी अलक्षित रूप से बढ़ती है; सहज-स्वाभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति भी सबल होती है। लेकिन, मानसिक शक्ति का ह्रास करनेवाली इस निरानंद शिक्षा से हमें कैसे छुटकारा मिलेगा कुछ समझ में नहीं आता।

(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
 उत्तर-पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर

(ख) शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों का विकास किस कारण से नहीं हो पाता
उत्तर-शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों का विकास इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि हमारी वर्तमान शिक्षा-पद्धति में बाल्यकाल से ही पढ़ाई में आनंद का स्थान नहीं है। बच्चों को केवल तथ्य याद करने पर ही जोर दिया जाता है, जिससे उनकी सोचने और समझने की क्षमता जड़ हो जाती है। परिणामस्वरूप उनका काम तो चल जाता है, लेकिन उनका वास्तविक मानसिक और बौद्धिक विकास रुक जाता है।

(ग) शिक्षा-पुस्तक को पूचाने के लिए किस रूप में किसी सहायता जरूरी है?
उत्तर-लेखक का मानना है कि किसी शिक्षा-पुस्तक को सही ढंग से समझने और पचाने के लिए कुछ सहायक पाठ्य-सामग्री आवश्यक होती है, ठीक उसी तरह जैसे भोजन को पचाने के लिए हवा जरूरी है। इन सहायक सामग्रियों में पढ़ाई के साथ आनंद और रुचि भी शामिल है। दुर्भाग्यवश, हमारी शिक्षा प्रणाली में बच्चों के लिए इस प्रकार के आनंद का स्थान नहीं है, इसलिए वे सामग्री को केवल रटकर ही ग्रहण करते हैं, जिससे उनका अनुभव अधूरा रह जाता है।

(घ) आनंद के साथ पढ़ने से क्या लाभ मिलता है?
उत्तर-जब पढ़ाई आनंद के साथ की जाती है, तो इसका लाभ यह होता है कि पठन-शक्ति धीरे-धीरे और सहज ढंग से विकसित होती है। इसी क्रम में छात्र की ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति भी मजबूत और सक्षम बनती हैं। ऐसी अवस्था में शिक्षा को समझने और अपनाने की क्षमता अपने पूर्ण स्वरूप में प्रकट होती है। दुर्भाग्यवश, हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इस तरह के आनंद का अभाव है।

(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-इस गद्यांश का आशय यह है कि लेखक ने हमारी शिक्षा प्रणाली में मौजूद प्रमुख दोष को उजागर किया है। उनके अनुसार, बच्चों को बचपन से ही शिक्षा आनंद और स्वाभाविक रुचि के साथ मिलनी चाहिए, लेकिन वर्तमान व्यवस्था में ऐसा नहीं है। बच्चे दबाव, भय और तनाव के माहौल में पढ़ाई करते हैं, जिससे उनकी पठन-शक्ति, ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति कमजोर रह जाती है और वे शिक्षा को ठीक से समझ या आत्मसात नहीं कर पाते।

3. लेकिन अंग्रेजी पढ़ने के प्रयास में ना वे सीखते हैं, ना खेलते हैं। प्रकृति के सत्यराज में प्रवेश करने के लिए उन्हें अवकाश ही नहीं मिलता। साहित्य के कल्पना-राज्य का द्वार उनके लिए अवरूद्ध रह जाता है।

मनुष्य के अंदर और बाहर दो उन्मुक्त विहार-क्षेत्र हैं, जहाँ से वह जीवन, बल और स्वास्थ्य का संचय करता है। जहाँ नाना वर्ण-रूप-गंध, विचित्र गति और संगीत, प्रीति और उल्लास उसे सर्वांग चेतन और विकसित करते हैं। इन दोनों मातृभूमियों से निर्वासित करके अभागे बालकों को एक विदेशी कारागृह में बंद कर दिया जाता है। जिनके लिए ईश्वर ने माता-पिता के हृदय में स्नेह का संचार किया है जिनके लिए माता की गोद को कोमलता प्रदान की गई है,जो आकार में छोटे होते हुए भी घर-घर की सारी जगह को अपने खेला के लिए यथेष्ट नहीं समझते, ऐसे बालकों को अपना बचपन कहाँ काटना पड़ता है? विदेशी भाषा में व्याकरण और शब्दकोश में; जिसमें जीवन नहीं, आनंद नहीं, अवकाश या नवीनता नहीं, जहाँ-हिलने-डुलने का स्थान नहीं, ऐसी शिक्षा की शुष्क, कठोर, संकीर्णता में।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।

उत्तर- पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर

(ख) अंग्रेजी पढ़ने के प्रयास में बच्चे किन-किन चीजों से वंचित हो । जाते हैं?

उत्तर- लेखक का मत है कि अंग्रेजी पढ़ने के प्रयास में बच्चे कई महत्वपूर्ण चीजों से वंचित रह जाते हैं। वे उस भाषा से वास्तविक ज्ञान या समझ हासिल नहीं कर पाते। इसके बजाय, उन्हें खेलकूद, प्रकृति का आनंद लेने और कल्पना-शक्ति विकसित करने जैसे सुखद अनुभवों से वंचित होना पड़ता है। अंग्रेजी पढ़ने में उनका समय व्यर्थ चला जाता है और उनकी मानसिक स्वतंत्रता तथा सृजनात्मकता सीमित रह जाती है।

(ग) मनुष्य के अंदर और बाहर जो उन्मुक्त विहार क्षेत्र हैं उनसे उन्हें क्या लाभ मिलते हैं और इनसे विरत रहने पर उन्हें क्या कष्ट झेलना पड़ता है?

उत्तर- लेखक का कहना है कि मनुष्य के पास दो प्रकार के मुक्त विहार क्षेत्र हैं—एक उसका भीतर का और दूसरा बाहर का। इन क्षेत्रों में घूमने-फिरने से उसे रंगों, खुशबू, समय की विविध गति, संगीत, प्रेम और आनंद का अनुभव होता है, जिससे उसकी चेतना और सृजनात्मक शक्ति बढ़ती है। यदि वह इन मुक्त विहार क्षेत्रों से वंचित रहे, तो उसे ऐसा लगता है जैसे वह किसी विदेशी कारागृह में बंद हो गया हो और उसे मानसिक और आत्मिक कष्ट झेलने पड़ते हैं।

(घ) बच्चों को विदेशी भाषा के व्याकरण और शब्दकोश में क्या मिलता है?

उत्तर- विदेशी भाषा के व्याकरण और शब्दकोश से बच्चों को केवल शुष्क और कठोर ज्ञान ही मिलता है। इसमें जीवन का आनंद, अवकाश, नवीनता या किसी भी प्रकार की सृजनात्मक अनुभूति नहीं होती। इससे बच्चों की मानसिक शक्ति का विकास रुक जाता है और उनका व्यक्तित्व अविकसित और कुंठित रह जाता है।

(ङ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बच्चों की किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर-इस गद्यांश में लेखक ने बच्चों की कुछ प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया है—बच्चे अपने माता-पिता के स्नेह और प्रेम के योग्य होते हैं। ईश्वर ने माता-पिता के हृदय में उनके प्रति स्नेह और मातृत्व में कोमलता का संचार किया है। छोटे आकार के बावजूद बच्चे अपने घर के आँगन को खेलने और कूदने के लिए पर्याप्त मानकर उसमें स्वतंत्र रूप से विचरण करते हैं और अपनी जिज्ञासा तथा ऊर्जा के अनुसार संसार का अनुभव प्राप्त करते हैं।

4. इस तरह बीस-बाईस वर्ष की आयु तक हमें जो शिक्षा मिलती है उसका हमारे जीवन से रासायनिक मिश्रण नहीं होता। इससे हमारे मन को एक अजीब आकार मिलता है। शिक्षा से हमें जो विचार और भाव मिलते हैं उनमें से कुछ को तो लेई से जोड़कर सुरक्षित रखते हैं और बचे हुए कालक्रम से झड़ जाते हैं। बर्बर जातियों के लोग शरीर पर रंग लगाकर या शरीर के विभिन्न अंगों को गोदकर, गर्व का अनुभव करते हैं; जिससे उनके स्वाभाविक स्वास्थ्य की उज्ज्वलता और लावण्य छिप जाते हैं। उसी तरह हम भी अपनी विलायती विद्या का लेप लगाकर दंभ करते हैं, किंतु यथार्थ आंतरिक जीवन के साथ उसका भोग बहुत कम ही होता है। हम सस्ते, चमकते हुए, विलायती ज्ञान को लेकर शान दिखाते हैं, विलायती विचारों का असंगत रूप से प्रयोग करते हैं। हम स्वयं यह नहीं समझते कि अनजाने ही हम कैसे अपूर्व प्रहसन का अभिनय कर रहे हैं। यदि कोई हमारे ऊपर हँसता है तो हम फौरन यूरोपीय इतिहास से बड़े-बड़े उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
उत्तर- पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर

(ख) बीस-बाईस वर्ष की आयु तक प्राप्त शिक्षा से हमें क्या मिलता
उत्तर- बीस-बीस वर्ष की आयु तक प्राप्त शिक्षा हमें ठोस और स्थायी लाभ नहीं देती। इस शिक्षा का हमारे जीवन में कोई प्राकृतिक समन्वय नहीं बन पाता। इसके कारण हमारी चेतना को वास्तविक सुख और शांति नहीं मिलती, बल्कि मन में असामंजस्य और अजीब प्रकार की उलझन उत्पन्न होती है। शिक्षा से मिलने वाले विचार और भाव केवल क्षणिक रहते हैं और उनका स्थायी मूल्य हमारे जीवन में स्थापित नहीं होता।

(ग) विलायती विद्या का लेप लगाकर हम क्या करते रहने को मजबूर होते रहते हैं?
उत्तर-विलायती शिक्षा का दिखावा करके हम जीवन में झूठे अभिमान और ढोंग का प्रदर्शन करते रहते हैं। इसके वास्तविक जीवन से कोई मेल नहीं होता। हम विदेशी भाषा से प्राप्त ज्ञान पर घमंड करते हैं और विलायती विचारों को अनसंगत ढंग से प्रयोग में लाकर अपनी छवि निखारने का प्रयास करते रहते हैं।

(घ) हम हँसी के पात्र कब बनते हैं और उससे बचने के लिए हम क्या करते हैं?
उत्तर-हम विदेशी भाषा और उससे प्राप्त ज्ञान पर घमंड करके इस कदर दिखावे में लग जाते हैं कि अपने समाज में हँसी के पात्र बन जाते हैं। इससे बचने के लिए हम तुरंत यूरोपीय इतिहास के उदाहरणों का सहारा लेकर अपने आपको श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास करते हैं।

(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-इस गद्यांश का मुख्य आशय यह है कि अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा केवल दिखावे और गुमान का साधन बन जाती है। जैसे बर्बर जाति के लोग शरीर पर रंग या गोंद लगाकर गर्व का प्रदर्शन करते हैं, वैसे ही लोग विदेशी भाषा के ज्ञान का लेप लगाकर व्यर्थ की शान और दिखावा करते हैं। लेखक इसे हास्यास्पद और अनावश्यक मानते हैं।

5. बाल्यकाल से ही यदि भाषा-शिक्षा के साथ भाव-शिक्षा की भी व्यवस्था हो और भाव के साथ समस्त जीवन-यात्रा नियमित हो, तभी हमारे जीवन में यथार्थ सामंजस्य स्थापित हो सकता है। हमारा व्यवहार तभी सहज मानवीय व्यवहार हो सकता है और प्रत्येक विषय में उचित परिणाम की रक्षा हो सकती है। हमें यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि जिस भाव से हम जीवन-निर्वाह करते हैं उसके अनुकूल हमारी शिक्षा नहीं है। जिस घर में हमें सदा अपना जीवन बिताना है उसका उन्नत चित्र हमारी पाठयपुस्तकों में नहीं है। जिस समाज के बीच हमें अपना जीवन बिताना है उस समाज का कोई उच्च आदर्श हमें शिक्षा-प्रणाली में नहीं मिलता। उसमें अब हम अपने माता-पिता, सुहद-मित्र, भाई-बहन किसी का प्रत्यक्ष चित्रण नहीं देखते। हमारे दैनिक जीवन के कार्यकलाप को उस साहित्य में स्थान नहीं मिलता।

(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
उत्तर- पाठ-शिक्षा में हरे-फर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर

(ख) हमारा व्यवहार किस परिस्थिति में सहज मानवीय व्यवहार हो सकता है?
उत्तर- हमारा व्यवहार तब सहज और मानवीय हो सकता है जब बचपन से ही भाषा-शिक्षा के साथ भावनात्मक शिक्षा भी दी जाए। इस तरह जीवन-यात्रा में भावनाओं का संतुलन बना रहता है और व्यक्ति यथार्थ जीवन से जुड़कर प्राकृतिक और मानवीय ढंग से व्यवहार करने में सक्षम होता है।

(ग) हमें कौन-सी बात अच्छी तरह समझना चाहिए?
उत्तर- हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमारे वास्तविक जीवन के अनुरूप नहीं है। जिस वातावरण में हम स्थायी रूप से जीवन व्यतीत करने वाले हैं, उसका सही और स्पष्ट चित्र हमारी पाठ्य-पुस्तकों में नहीं मिलता। दैनिक जीवन के कार्यकलापों को उस शिक्षा में स्थान नहीं दिया गया है, और जीवन के गतिशील संगीत को अनुभव करने का अवसर भी हमें नहीं मिलता।

(घ) अनुकूल शिक्षा कौन-सी शिक्षा होती है और उससे हमें क्या मिलता है?
उत्तर- अनुकूल शिक्षा वह होती है जो हमारे वास्तविक जीवन और जीवन-निर्वाह की भावनाओं के अनुरूप हो। ऐसी शिक्षा में पाठ्य-पुस्तकों में हमारे निवास और सामाजिक जीवन का सटीक चित्र हो, हमारे दैनिक कार्यकलापों और व्यक्तिगत गतिविधियों के लिए उचित स्थान हो, और इससे हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण से शिक्षा का जुड़ाव महसूस हो।

(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर- इस गद्यांश का मुख्य संदेश यह है कि भाषा-शिक्षा तभी प्रभावशाली और लाभकारी होती है जब वह भाव-शिक्षा के साथ जुड़ी हो। केवल भाषा सीखना पर्याप्त नहीं है; बच्चों को भावनाओं और वास्तविक जीवन से भी जोड़ना आवश्यक है। वर्तमान स्थिति में हमारी शिक्षा इस सामंजस्य से वंचित है, जिससे पाठ्य-पुस्तकों में हमारे घर, समाज और जीवन का वास्तविक चित्र नहीं मिलता और शिक्षा का जीवन से मेल और उपयोग सीमित रह जाता है।

6. कहानी है कि एक निर्धन आदमी जाड़े के दिनों में रोज भीख माँगकर गरम कपड़ा बनाने के लिए धन-संचय करता, लेकिन यथेष्ट धन जमा होने तक जाड़ा बीत जाता। उसी तरह जब तक वह गर्मी के लिए उचित कपड़े की व्यवस्था कर पाता तब तक गर्मी भी बीत जाती। एक दिन देवता ने उसपर तरस खाकर उसे वर माँगने को कहा तो वह बोला, ‘मेरे जीवन का यह हेर-फेर दूर करो, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं जीवन भर गर्मी में गरम कपड़े और सर्दी में ठंडे कपड़े प्राप्त करता रहा हूँ। इस परिस्थिति में संशोधन कर दो-बस, मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। हमारी प्रार्थना भी यही है। हेर-फेर दूर होने से ही हमारा जीवन सार्थक होगा। हम सर्दी में गरम कपड़े और गर्मी में ठंडे कपड़े जमा नहीं कर पाते, तभी तो हमारे जीवन में इतना दैन्य है-वरना हमारे पास है सबकुछ।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
उत्तर- पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर

(ख) इस कहानी में कैसे व्यक्ति की कहानी है? उस व्यक्ति के कार्य का परिचय दीजिए।
उत्तर-यह कहानी एक गरीब व्यक्ति के जीवन का वर्णन करती है। यह व्यक्ति सर्दियों में गरम कपड़े खरीदने के लिए रोज़ भीख मांगकर पैसा इकट्ठा करता था, लेकिन दुर्भाग्य यह था कि जब तक वह पर्याप्त धन जुटाता, सर्दियों का मौसम समाप्त हो चुका होता।

(ग) एक दिन किस परिस्थिति में उस व्यक्ति ने देवता से क्या वरदान माँगा?
उत्तर-एक दिन उस व्यक्ति ने देखा कि सर्दी और गर्मी के लिए कपड़े का प्रबंध करना उसके लिए असंभव हो गया है। वह अपने ऊपर तरस खाकर देवता से यह वरदान माँगा कि उसके जीवन में यह हेर-फेर बनी रहे कि जब तक वह दोनों ऋतुओं के अनुसार कपड़े खरीदने के लिए भीख मांगकर धन जमा करता, तब तक ऋतु के अनुकूल वस्त्र प्राप्त न कर पाए।

(घ) उसके अनुसार उसके जीवन में दैन्य का क्या रूप है?
उत्तर-उसके दृष्टिकोण से उसके जीवन का दैन्य यह है कि वह हमेशा गर्मी में गर्म कपड़े और सर्दी में ठंडे कपड़े ही प्राप्त करता है। वह चाहता है कि इसमें हेर-फेर हो, यानी गर्मी में ठंडे और सर्दी में गर्म कपड़े मिलें।

(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-इस गद्यांश का आशय यह है कि वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था हमारे जीवन की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है। हमारे जीवन में एक प्रकार की कठिनाई और असमर्थता व्याप्त है। लेखक ने इसे उस भिखारी के उदाहरण से समझाया है, जो जाड़े के अनुकूल कपड़े पाने के लिए पूरा समय भीख माँगने में ही व्यतीत कर देता है और जब तक साधन जुटाता है, मौसम बदल जाता है। इसी तरह हमारी शिक्षा भी जीवन के अनुकूल साधन नहीं देती। इसलिए आवश्यक है कि हम ऐसी भाषा-शिक्षा प्राप्त करें जो हमारे वास्तविक जीवन और आवश्यकताओं के अनुरूप हो।


Answer by Mrinmoee