Chapter 15

                                                          गुरुगोविंद सिंह


प्रश्न 1.ईश्वर ने मनुष्य को सर्वोत्तम कृति के रूप में रचा है। कवि के अनुसार मनुष्य वस्तुतः एक ही ईश्वर की संतान है, उसे खेमों में बाँटना उचित नहीं है। इस क्रम में उन्होंने किन उदाहरणों का प्रयोग किया है?
उत्तर-
गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपनी कविता के माध्यम से ईश्वर और मनुष्य के बीच के अविच्छिन्न संबंध को दर्शाया है। उन्होंने यह बताया कि सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं और उन्हें किसी प्रकार के खेमों में बाँटना उचित नहीं है।

उनकी पंक्तियाँ—
“एक ही सेव सब ही को गुरुदेव एक, एक ही सरुप सबे, एकै जोत जानबो।
तैसे विश्वरूप ते अभूत भूत प्रगट होई, ताही ते उपह सबै ताही मैं समाहिंगे।।’’

में ईश्वर के व्यापक स्वरूप और उसकी सार्वभौमिकता का वर्णन है। सभी जीव उसी परमात्मा के अंश हैं, सभी का स्वरूप एक ही है और सभी एक ही ज्योति के प्रकाश से उत्पन्न हुए हैं। इसी तरह, सृष्टि का मूल आधार और सम्पूर्ण विश्वरूप भी परमात्मा से ही प्रकट हुआ है। कवि के अनुसार, मनुष्य अपनी जड़त्व और नश्वरता को समझते हुए उसी परमात्मा में विलीन हो जाता है।

प्रश्न 2.कवि ने मानवीय संवेदना को मनुष्यता के किस डोर में बाँधे रखने की बात कही है?
उत्तर-
गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपनी कविता में मानवीय संवेदना को यह सीख दी है कि उसे मनुष्य की जात, धर्म या पद के भेद से बांधकर नहीं रखना चाहिए। वे कहते हैं कि चाहे कोई हिन्दू हो, तुरक हो, राफजी हो या इमाम, चाहे कोई साफी हो—सभी की पहचान और मूल्य एक समान है। यह केवल शब्दों और रूपों का भ्रम है; वास्तविकता में सभी मनुष्य एक ही हैं।

वे आगे बताते हैं कि जो कृपालु और सृजनहार है, वही सबका मार्गदर्शन करता है। राजा और रहिम जैसे लोग भी उसी ईश्वर की प्रेरणा से कार्य करते हैं। अतः मनुष्य में जात-पात, धर्म या भेद मानना मूर्खता है। गुरु गोविन्द सिंह जी की यह दृष्टि मानवीय संवेदना को समानता, एकता और ईश्वर के सर्वशक्तिमान स्वरूप की ओर जोड़ती है, जिससे मनुष्य न केवल दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनता है, बल्कि मानवता की डोर में भी बंधा रहता है।

प्रश्न 3.गुरुगोविन्द सिंह के इन भक्ति पदों के माध्यम से सामाजिक कलह और भेदभाव को कम किया जा सकता है? पठित पद से उदाहरण देकर समझाएँ।
उत्तर-
गुरु गोविन्द सिंह जी के भक्ति पदों में सामाजिक कलह और भेदभाव को कम करने का संदेश स्पष्ट रूप से मिलता है। उन्होंने सभी मनुष्यों की समानता और एकत्व पर बल दिया है।

उदाहरण स्वरूप, पंक्तियाँ—
“हिन्दू तुरक कोऊ राफजी इमाम साफी,
मानस की जात सबै एकै पहचान बो।”

बताती हैं कि चाहे कोई हिन्दू हो, तुरक हो, राफजी या इमाम, साफी या अन्य, सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। इनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है।

“एक ही सेव सबही को गुरुदेव एक,
एक ही सरुप सबै, एकै जोत जानबो।”

यहाँ गुरुजी ने सभी मनुष्यों की उत्पत्ति और मूल एकत्व को रेखांकित किया है। सभी एक ही गुरु की संतान हैं और सभी एक ही ज्योति से प्रकाशित हैं।

“जैसे एक आग ते कन का कोट आग उठे,
न्यारे न्यारे है कै फेरि आग में मिताहिंगे।”

इस उदाहरण में गुरुजी ने यह दिखाया कि जैसे आग के अणु वापस उसी आग में मिल जाते हैं, वैसे ही सभी आत्माएँ परमात्मा की संतान हैं और अंत में उसी में विलीन हो जाती हैं।

“करता करीम सोई राजक रहीम आई,
दूलरोन भेद कोई भूल भ्रम मानबो।”

इस पंक्ति में ईश्वर की सार्वभौमिक कृपा का उदाहरण देकर कहा गया है कि मनुष्य में भ्रम और भेदभाव केवल माया और भ्रम का परिणाम हैं।

इस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह जी के इन पदों से यह स्पष्ट होता है कि जब हम सभी मनुष्यों को समान मानेंगे और ईश्वर के प्रति आस्था रखेंगे, तो सामाजिक कलह और भेदभाव स्वतः कम हो जाएगा।

प्रश्न 4.भाव स्पष्ट करें(क) “तैसे विस्वरूप ते अभूत भूत प्रगट होइ,
ताही ते उपज सबै ताही में समाहिंगे।’
उत्तर-
उपरोक्त पंक्तियाँ गुरु गोविन्द सिंह जी की कविता से ली गई हैं। इनमें वे ईश्वर के सर्वशक्तिमान और व्यापक स्वरूप का विवरण प्रस्तुत करते हैं। गुरुजी कहते हैं कि सभी जीव, सभी प्राणी और सारी सृष्टि ईश्वर के अंश से उत्पन्न हुई है। इसी कारण सभी का अंत भी उसी में विलीन हो जाता है।

कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम से यह संदेश दिया है कि भौतिक जगत अस्थायी और नश्वर है, जबकि ईश्वरीय सत्ता शाश्वत और सर्वोपरि है। लौकिक और अलौकिक जगत का यह अटूट संबंध स्पष्ट करता है कि मनुष्य और सृष्टि की उत्पत्ति, जीवन और विनाश सभी उसी परमात्मा के अधीन हैं।

इस प्रकार इन पंक्तियों में गुरु गोविन्द सिंह जी ने ईश्वरीय सत्ता की महत्ता, सार्वभौमिकता और सभी जीवों के उससे जुड़े होने का गूढ़ संदेश दिया है।

भाव स्पष्ट करें:

प्रश्न 4.(ख) “एक ही सेव सबही को गुरुदेव एक,
एक ही सरूप सबै, एकै जोत जानबो।
उत्तर-
उपरोक्त पंक्तियाँ गुरु गोविन्द सिंह जी की प्रथम छंद कविता से ली गई हैं। इन पंक्तियों में गुरुजी ने ‘सेव’, ‘गुरुदेव’, ‘सरूप’, ‘जोत’ जैसे शब्दों के माध्यम से ईश्वर की सर्वशक्तिमानता और विराटता को उजागर किया है। वे बताते हैं कि सभी भेदभाव और भिन्नताओं के पीछे मनुष्य की आंतरिक एकता छिपी हुई है।

कवि का कहना है कि सेवा के योग्य वही ईश्वर है, जो सबका गुरुदेव है। उसका स्वरूप और ज्योति एक है, और उसी से सारी सृष्टि प्रकाशित है। इस पद में गुरुजी ने स्पष्ट किया है कि सभी मनुष्य एक ही मूल से उत्पन्न हैं और अंततः उसी में लीन होते हैं।

इस प्रकार ये पंक्तियाँ ईश्वर की महानता, विराटता और सार्वभौमिक एकता को दर्शाते हुए समाज में मानवता और एकता की सीख देती हैं।


Answer by Mrinmoee