Chapter 20
लीलाधर जगूड़ी
पहले 20 विस्तृत प्रश्न और उत्तर
प्रश्न 1. लीलाधर जगूड़ी का जन्म कब और कहाँ हुआ था? उनके जन्म-स्थान की विशेष भौगोलिक पहचान क्या है?
उत्तर:लीलाधर जगूड़ी जुलाई 1944 में उत्तराखंड के टिहरी ज़िले के एक छोटे से गाँव गणगाँव में जन्मे। यह इलाका पहाड़ी जीवन, प्राकृतिक परिवेश और लोकसंस्कृति से भरापूरा है, जिसने उनके सोच-विचार, संवेदना और लेखन की नींव तय की।
प्रश्न 2. लीलाधर जगूड़ी बाल्यावस्था में घर से क्यों निकल गए थे और इस अनुभव ने उनके जीवन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर: बचपन में सिर्फ़ ग्यारह साल की उम्र में वे घर से निकल पड़े। उसके बाद उन्होंने अलग-अलग प्रदेशों और शहरों में छोटी-बड़ी नौकरियाँ करके अपना गुज़ारा किया। इसी वजह से पढ़ाई बराबर जारी नहीं रह पाई, मगर भटकन और संघर्ष के वही अनुभव आगे चलकर उनके सोच, अभिव्यक्ति और कविता की ज़मीन बने।
प्रश्न 3. औपचारिक शिक्षा में व्यवधान के बावजूद लीलाधर जगूड़ी ने हिंदी भाषा और साहित्य में एम.ए. कैसे किया?
उत्तर: जीवन में पढ़ाई रुक-रुककर चलने के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। अलग-अलग परिस्थितियों में रहते हुए भी उन्होंने हिंदी साहित्य का अध्ययन स्वप्रयास से जारी रखा और अंततः नियमित शैक्षिक क्रम टूटने के बावजूद एम.ए. की डिग्री हासिल कर ली।
प्रश्न 4. सन् 1966 से 1980 तक लीलाधर जगूड़ी ने शिक्षा क्षेत्र में क्या योगदान दिया?
उत्तर: सन 1966 से 1980 के बीच लीलाधर जगूड़ी ने उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में शिक्षक के रूप में काम किया। पढ़ाने के अलावा वे शिक्षकों के हक़ और संगठन से भी जुड़े रहे तथा उसी दौरान शिक्षक संघ की अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी भी संभाली।
प्रश्न 5. 1981 में जगूड़ी का कैरियर किस दिशा में मुड़ा और उनका पद क्या था?
उत्तर: 1981 में लीलाधर जगूड़ी ने शिक्षा क्षेत्र से हटकर प्रशासनिक और सूचना कार्यों की ओर कदम बढ़ाया। उन्हें उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में नियुक्त किया गया और वे विभाग की मासिक पत्रिका ‘उत्तर प्रदेश’ के मुख्य संपादक बने।
प्रश्न 6. ‘अनुभव के आकाश में चाँद’ काव्य संग्रह किस सम्मान से सम्मानित हुआ और कब?
उत्तर: लीलाधर जगूड़ी के काव्य संग्रह ‘अनुभव के आकाश में चाँद’ को उनकी उत्कृष्ट रचनाशीलता के लिए 1997 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
प्रश्न 7. लीलाधर जगूड़ी की कविताओं में समकालीनता किस प्रकार प्रतिबिंबित होती है?
उत्तर: लीलाधर जगूड़ी की कविताएँ पिछले चार दशकों से अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी परिवर्तनों को दर्शाती रही हैं। भाषा और शैली में प्रयोगशीलता के साथ वे मिथक, प्रकृति, बाजार और मानव जीवन की जटिलताओं को कविता में इस तरह पिरोते हैं कि उनका काव्य हमेशा अपने युग की वास्तविकता और समकालीन अनुभव का प्रमाण बनकर सामने आता है।
प्रश्न 8. कविता ‘मेरा ईश्वर’ को किस काव्य संग्रह से लिया गया है और उसका मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर: कविता ‘मेरा ईश्वर’ लीलाधर जगूड़ी के काव्य संग्रह ‘ईश्वर की अध्यक्षता में’ से ली गई है। इसका मूल उद्देश्य उस प्रभुत्वशाली वर्ग की आलोचना करना है, जो मनुष्य को अपने नियंत्रण और धार्मिक-सांस्कृतिक बंधनों में फंसाकर उसकी स्वतंत्रता सीमित करता है।
प्रश्न 9. कवि कहता है कि ‘मेरा ईश्वर मुझसे नाराज़ है।’ इस कथन के पीछे क्या भाव छिपा है?
उत्तर: कवि यह व्यक्त करते हैं कि “मेरा ईश्वर मुझसे नाराज़ है” कहकर वे उस सामाजिक और धार्मिक ढाँचे की ओर इशारा कर रहे हैं जो दुख और भय के सहारे मनुष्य को नियंत्रित करता है। जब कवि अपने दुखी न रहने के निर्णय पर अडिग रहता है, तो यह परंपरागत सत्ता और ईश्वर-कल्पना के लिए अस्वीकार्य प्रतीत होती है।
प्रश्न 10. कवि ने ‘दुखी न रहने’ का निश्चय क्यों किया और इस निश्चय में क्या विद्रोह छिपा है?
उत्तर: कवि ने दुखी न रहने का फैसला इसलिए किया क्योंकि वे मानते हैं कि दुख को जीवन का अनिवार्य हिस्सा मान लेना व्यक्ति की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को कमज़ोर कर देता है। इस निर्णय में छिपा विद्रोह उस मानसिक और भावनात्मक नियंत्रण के खिलाफ है, जो परंपरा और भय के माध्यम से मनुष्य पर लगाया जाता है।
प्रश्न 11. कवि ने ‘जो जरूरी नहीं है’ उसे त्यागने की कसम क्यों खाई?
उत्तर: कवि ने “जो जरूरी नहीं है” उसे त्यागने की कसम इसलिए खाई क्योंकि अनावश्यक परंपराएँ, आदतें और सामाजिक मान्यताएँ व्यक्ति की आज़ादी को सीमित करती हैं। उनका त्याग आत्मिक स्वतंत्रता और सोच की स्वतंत्रता की ओर बढ़ने का प्रतीक है, और इसी कारण कवि की दृष्टि में देवता इस निर्णय से असंतुष्ट प्रतीत होते हैं।
प्रश्न 12. इस कविता में सुख और दुख की अवधारणाएँ कैसे उलट दी गई हैं?
उत्तर: कवि यह दिखाते हैं कि उनके पास भौतिक या पारंपरिक रूप का सुख नहीं है, बल्कि उन्होंने केवल दुख से मुक्त रहने का संकल्प लिया है। इस दृष्टि से दुख का परित्याग ही उनके लिए असली सुख बन जाता है, जबकि सामान्य सुख की परंपरागत अवधारणा पीछे छूट जाती है।
प्रश्न 13. ‘मेरी परेशानियाँ और मेरे दुख ही ईश्वर का आधार क्यों हों?’ – इस पंक्ति से कवि क्या प्रश्न उठाता है?
उत्तर: इस पंक्ति में कवि यह सवाल उठाते हैं कि क्यों ईश्वर या धार्मिक व्यवस्थाएँ केवल मानव दुःख और संकट के आधार पर ही स्थापित मानी जाती हैं। अगर व्यक्ति दुख-मुक्त रह सकता है, तो क्या ईश्वर की प्रतिष्ठा या अधिकार कुछ कम हो जाएगा?
प्रश्न 14. कविता ‘मेरा ईश्वर’ का केंद्रीय भाव क्या है?
उत्तर: कविता ‘मेरा ईश्वर’ का मुख्य भाव यह है कि मनुष्य को अपनी पूर्ण स्वतंत्रता का अधिकार है। यह कविता दुख के औद्योगिक या सामाजिक इस्तेमाल का विरोध करती है और उस धार्मिक-सांस्कृतिक ढाँचे की आलोचना करती है, जो लोगों को दुख में बांधकर अपने नियंत्रण को कायम रखना चाहता है।
प्रश्न 15. कवि की दृष्टि में दुख और ईश्वर के बीच कैसा संबंध स्थापित किया गया है?
उत्तर: कवि के अनुसार, सामान्य दृष्टि में दुख को ईश्वर या ईश्वरीय व्यवस्था से जोड़ा जाता है। लेकिन वे इसे केवल मानव अनुभव के रूप में देखते हैं और इसका बोझ उठाने या इसे ईश्वर की इच्छा मानने के बजाय उससे मुक्ति पाने की ओर अग्रसर हैं।
प्रश्न 16. कविता में प्रयुक्त भाषा का स्वर कैसा है और इससे क्या प्रभाव उत्पन्न होता है?
उत्तर: कविता में भाषा सहज, स्पष्ट और आलोचनात्मक है। इसमें व्यंग्य की झलक भी मिलती है, जो पाठक को परंपरागत मान्यताओं और ईश्वर-संबंधी रूढ़ियों पर सोचने और सवाल उठाने के लिए प्रेरित करती है।
प्रश्न 17. कवि यहाँ किस तरह की मानसिक स्वतंत्रता की बात करता है?
उत्तर: कवि मानसिक स्वतंत्रता को इस रूप में देखते हैं कि व्यक्ति दुख और भय के बंधन से मुक्त हो, अनावश्यक चीज़ों और आदतों को छोड़कर अपनी सोच और निर्णयों में स्वतंत्र हो सके।
प्रश्न 18. कविता में ‘त्यागने की कसम’ को किस प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया है?
उत्तर: कविता में “त्यागने की कसम” का उपयोग व्यक्ति की स्वायत्तता, विरोध, आत्मनिर्णय और दबावपूर्ण परंपराओं को चुनौती देने के प्रतीक के रूप में किया गया है।
प्रश्न 19. कविता में सुख को न होने पर भी कवि संतुष्ट क्यों दिखाई देता है?
उत्तर: कवि इस कारण संतुष्ट दिखाई देते हैं क्योंकि उन्होंने दुख को जीवन का अपरिहार्य हिस्सा मानने की मानसिकता त्याग दी है। बाहरी सुख की अनुपस्थिति उनके संतोष में बाधक नहीं बनती; दुख-मुक्त रहने का उनका अभ्यास ही असली संतोष प्रदान करता है।
प्रश्न 20. कविता का पहला वाक्य कविता का पूरा स्वर निर्धारित करने में कैसे सहायक है?
उत्तर: कविता का पहला वाक्य “मेरा ईश्वर मुझसे नाराज है” सीधे ही पाठक को यह बताता है कि कवि पारंपरिक धार्मिक मान्यताओं पर सवाल उठाने वाले हैं। यही पंक्ति पूरी कविता का व्यंग्यपूर्ण और चिंतनशील स्वर स्थापित करती है।
✦ भाग 1 — (प्रश्न–उत्तर 1 से 50)
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प्रश्न: कवि लीलाधर जगूड़ी अपने ईश्वर के नाराज़ होने की बात से कौन-सा भाव प्रकट करना चाहते हैं और इसके पीछे उनकी कौन-सी मानसिक स्थिति छिपी है?
उत्तर: कवि यह व्यक्त करना चाहते हैं कि “मेरा ईश्वर मुझसे नाराज़ है” कहकर वे व्यंग्य के माध्यम से उस सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था पर कटाक्ष कर रहे हैं, जो लोगों को दुख और पीड़ा में बाँधकर अपने प्रभाव को बनाए रखती है। जब कवि ने दुख से मुक्त रहने का निर्णय लिया, तो यह व्यवस्था—प्रतीकात्मक रूप में ईश्वर—उनसे असंतुष्ट प्रतीत होती है। -
प्रश्न: कवि ने दुखी न रहने की जो ठान ली है, उसके पीछे उनकी चेतना और आत्मसम्मान का कौन-सा पक्ष दिखाई देता है?
उत्तर: कवि यह दिखाते हैं कि उन्होंने दुखी न रहने का निर्णय इसलिए लिया क्योंकि वे मानते हैं कि मनुष्य को पीड़ा में लगातार रहने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। यह उनके आत्मसम्मान और जागरूक चेतना का परिचायक है। दुख को अस्वीकार कर वे अपने आप को स्वतंत्र, विवेकी और आत्मनिर्भर व्यक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। -
प्रश्न: पाठ में वर्णित “देवता की नाराज़गी” वास्तव में किस सामाजिक प्रवृत्ति पर कटाक्ष है?
उत्तर: पाठ में “देवता की नाराज़गी” का जिक्र उस सामाजिक प्रवृत्ति की आलोचना है, जिसमें धार्मिक संस्थाएँ और परंपराएँ केवल मनुष्य के दुख और भय के सहारे अपना वर्चस्व बनाए रखती हैं। कवि दिखाते हैं कि दुख और भय पर आधारित ईश्वर की यह कल्पना लोगों के मानसिक नियंत्रण का माध्यम बन जाती है। -
प्रश्न: “जो ज़रूरी नहीं है मैंने त्यागने की कसम खा ली है” — इस पंक्ति का गहरा आशय समझाएँ।
उत्तर: कवि इस पंक्ति के माध्यम से यह बताना चाहते हैं कि जीवन में कई ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें लोग अनिवार्य समझ बैठते हैं, जबकि वे केवल आदत, दिखावा, अंधविश्वास या परंपरा के बंधन हैं। इनको त्यागकर कवि ने आत्मिक स्वतंत्रता और सरल जीवन अपनाया, जिससे समाज और पारंपरिक प्रतीक—जैसे देवता—उनसे असंतुष्ट प्रतीत होते हैं। -
प्रश्न: कवि ने सुख-दुख और ईश्वर के बीच जो प्रश्न उठाया है, वह आधुनिक संदेह-बोध का कौन-सा रूप प्रकट करता है?
उत्तर: कवि का प्रश्न “मेरी परेशानियाँ और मेरे दुख ही ईश्वर का आधार क्यों हों?” आधुनिक संदेह और आलोचनात्मक सोच का प्रतीक है। यह दिखाता है कि वे उस पारंपरिक ईश्वर-कल्पना को चुनौती देते हैं, जो मनुष्य के दुख और अज्ञान पर टिकी होती है। आधुनिक व्यक्ति अब ईश्वर को केवल भय और पीड़ा के माध्यम से स्वीकार नहीं करता, बल्कि विवेक और स्वतंत्र सोच से उसकी उपस्थिति और मूल्यांकन करता है। -
प्रश्न: कविता का प्रारम्भ ही “मेरा ईश्वर मुझसे नाराज़ है” से होता है। यह शुरुआत किस काव्यरचना तकनीक का संकेत देती है?
उत्तर: कविता की शुरुआत “मेरा ईश्वर मुझसे नाराज़ है” एक व्यंग्यपूर्ण और विडंबनापूर्ण तकनीक का उदाहरण है। यह सीधे पाठक का ध्यान खींचती है और सोचने पर मजबूर करती है। कवि सीधे निष्कर्ष पर न जाकर उल्टी अभिव्यक्ति के माध्यम से अपने विचार और तर्क प्रस्तुत करते हैं। -
प्रश्न: “न दुखी रहने का कारोबार करना है, न सुखी रहने का व्यसन” — इस कथन से कवि किस जीवनदर्शन को प्रस्तुत करते हैं?
उत्तर: कवि इस पंक्ति के माध्यम से यह जीवनदर्शन प्रस्तुत करते हैं कि न तो कृत्रिम सुख का पीछा करना चाहिए और न ही दुख को अपनाने की आदत डालनी चाहिए। वे संतुलित, जागरूक और आत्मनिर्भर जीवन की वकालत करते हैं, जिसमें व्यक्ति अपने निर्णयों और भावनाओं का स्वामी स्वयं हो। -
प्रश्न: ईश्वर के “अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न” लगाने की कवि की प्रवृत्ति को दार्शनिक दृष्टि से कैसे समझा जा सकता है?
उत्तर: कवि ईश्वर के वास्तविक अस्तित्व से अधिक उसकी पारंपरिक अवधारणा पर सवाल उठाते हैं। वे दिखाते हैं कि यदि जीवन में दुख नहीं है, तो पारंपरिक ईश्वर-निर्भरता का तर्क कमजोर पड़ जाता है। इस दृष्टि से उनकी प्रवृत्ति दार्शनिक संदेहवाद और मानवीय स्वतंत्रता की ओर इंगित करती है। -
प्रश्न: कविता के अनुसार सुख न होने के बावजूद कवि को दुख से दूरी बनाने में कैसी मानसिक संतुष्टि मिलती है?
उत्तर: कवि के लिए सुख किसी बाहरी वस्तु में नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति में है। दुखी न रहने का उनका निर्णय ही असली सुख है। भले ही पारंपरिक रूप से खुशी नहीं मिली हो, पर दुख को ठुकराकर वे अपनी भावनाओं और सोच में स्वतंत्रता महसूस करते हैं। यह उनके आत्मनियंत्रण और सकारात्मक मानसिकता को दर्शाता है। -
प्रश्न: कवि द्वारा प्रश्न उठाया गया है कि “मेरी परेशानियाँ और दुख ही ईश्वर का आधार क्यों हों?” इस कथन का सामाजिक तथा धार्मिक विमर्श में क्या महत्त्व है?
उत्तर: कवि इस पंक्ति के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से यह सवाल उठाते हैं कि क्या ईश्वर की मान्यता केवल मानव दुःख और पीड़ा पर आधारित हो सकती है। वे यह दिखाते हैं कि अगर दुख ही ईश्वर का आधार है, तो इससे मनुष्य लगातार आश्रित और नियंत्रित बना रहता है, जो नैतिक और तर्कसंगत दृष्टि से उचित नहीं है। -
प्रश्न: कवि ने ईश्वर के क्रोध को किस रूप में देखा — वास्तविक घटना या प्रतीकात्मक चित्रण?
उत्तर: कवि ने ईश्वर के क्रोध को प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। असल में ईश्वर नाराज़ नहीं हैं, बल्कि वे धार्मिक और सांस्कृतिक मानसिकताएँ हैं, जो दुख के सहारे अपनी शक्ति बनाए रखती हैं। जब कवि दुख से मुक्त रहने का संकल्प करता है, तो ये परंपरागत ढाँचे असहज हो जाते हैं और इसे कवि ने ईश्वर की नाराज़गी के रूप में दिखाया है। -
प्रश्न: “दुखी न रहने की ठान लेना” कवि के लिए आत्मबल का परिचायक कैसे है?
उत्तर: कवि के लिए “दुखी न रहने की ठान लेना” उनके आत्मबल और आंतरिक शक्ति का प्रतीक है। वे दिखाते हैं कि दुख को नियति मानकर स्वीकार करने की बजाय उसका सक्रिय विरोध करना व्यक्ति की मानसिक और भावनात्मक मजबूती को दर्शाता है। यह निर्णय बताता है कि दुख केवल बाहरी परिस्थिति नहीं, बल्कि मानसिक स्वीकृति से भी जुड़ा है, और उससे इनकार करना साहस और आत्मनिर्भरता का संकेत है। -
प्रश्न: कविता में प्रयुक्त “कारोबार” शब्द से कवि क्या संकेत देते हैं?
उत्तर: कवि ने “कारोबार” शब्द का प्रयोग केवल व्यापार के अर्थ में नहीं किया है, बल्कि यह उन सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं की आलोचना करता है जो दुख और आस्था को जोड़कर अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं। दुख को एक नियंत्रित और उत्पादित वस्तु की तरह देखने वाली यह प्रवृत्ति कविता के व्यंग्य का मुख्य केंद्र है। -
प्रश्न: कवि ‘देवता’ शब्द का प्रयोग बहुवचन में क्यों करता है?
उत्तर: कवि ने ‘देवता’ शब्द बहुवचन में इस लिए प्रयोग किया है ताकि यह दर्शा सकें कि ईश्वर की अवधारणा केवल एक व्यक्ति या सत्ता तक सीमित नहीं है। यह कई रूपों—धार्मिक नेताओं, सामाजिक मान्यताओं, अंधविश्वासों, सिद्धांतों और कथाओं—में बंटी हुई है, जिनकी सामूहिक मानसिकता लोगों के दुख और भय से पोषित होती है। -
प्रश्न: कविता के अनुसार जिस सुख की अनुपस्थिति है, उसके बावजूद कवि दुख को नकारने का फैसला कैसे उचित ठहराते हैं?
उत्तर: कवि यह मानते हैं कि भले ही उनके पास पारंपरिक या भौतिक सुख की कमी हो, फिर भी दुख को स्वीकार करके अपनी चेतना को उस पर निर्भर बनाना सही नहीं है। सुख अभी नहीं मिला हो सकता है, लेकिन दुख को जीवन का अपरिहार्य आधार मानना उनके लिए अस्वीकार्य है। इसलिए वे एक संतुलित और आत्मसम्मानजन्य मार्ग चुनते हैं। -
प्रश्न: कविता का मुख्य स्वर विरोध का है या आत्मस्वीकृति का? तर्क सहित उत्तर दें।
उत्तर: कविता में विरोध और आत्मस्वीकृति दोनों भाव मौजूद हैं, लेकिन मुख्य स्वर विरोध का है। कवि दुख पर आधारित धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं, परंपरागत ईश्वर की अपेक्षाओं और मनुष्य की विवशता को चुनौती देते हैं। इसी विरोध से आत्मस्वीकृति उभरती है, क्योंकि कवि अपने निर्णय—दुखी न रहने के—को दृढ़तापूर्वक अपनाते हैं। -
प्रश्न: “प्रभुवर्ग” (देवता) को कठपुतली संचालक के रूप में दिखाना किस सामाजिक विडंबना का उद्घाटन करता है?
उत्तर: कवि “प्रभुवर्ग” को कठपुतली संचालक के रूप में प्रस्तुत कर यह दिखाते हैं कि कई बार धर्म और ईश्वर की अवधारणा सत्ता बनाए रखने का उपकरण बन जाती है। इस संरचना में मनुष्य का मन नियंत्रित होता है और उसे आज्ञाकारी बनाया जाता है, जिससे उसकी स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। -
प्रश्न: “जो जरूरी नहीं है” वाली पंक्ति मनुष्य की जीवन-पद्धति के किस पहलू पर सवाल उठाती है?
उत्तर: “जो जरूरी नहीं है” वाली पंक्ति यह सवाल उठाती है कि मनुष्य अपनी जीवन-पद्धति में कितनी अनावश्यक चीज़ों, परंपराओं, भय और सामाजिक दबावों में उलझा हुआ है। समाज इन्हें आवश्यकता साबित करके व्यक्ति को नियंत्रित करता है। इन्हें त्यागने का निर्णय कवि की स्वतंत्र सोच और विशिष्टता को दर्शाता है। -
प्रश्न: कविता का शीर्षक “मेरा ईश्वर” क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: कविता का शीर्षक “मेरा ईश्वर” इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह व्यक्तिगत अनुभव और संबोधन को दर्शाता है, साथ ही एक प्रश्न और चुनौती भी प्रस्तुत करता है। कवि पारंपरिक ईश्वर की अवधारणा को अपनी चेतना से जोड़ते हैं और उसके साथ संवाद और विरोध स्थापित करते हैं। “मेरा” शब्द में अधिकार के साथ-साथ यह सवाल भी छिपा है कि यह ईश्वर किस प्रकार का है और उसकी आवश्यकता क्यों मानी जाती है। -
प्रश्न: कवि की दृष्टि में दुख और सुख दोनों तरह के अतिशय भावों से दूरी बनाए रखना कैसा जीवनदृष्टिकोण है?
उत्तर: कवि के अनुसार दुख और सुख दोनों के अतिशय से दूरी बनाए रखना एक संतुलित जीवनदृष्टिकोण है। यह दृष्टि संयम, सजगता और आत्मचिंतन पर आधारित है। वे न कृत्रिम सुख में फंसना चाहते हैं और न दुख को भाग्य मानकर स्वीकार करना चाहते हैं, बल्कि आत्मनिर्भर, विवेकपूर्ण और संतुलित जीवन अपनाने की सलाह देते हैं।