Chapter 13

                                                     किशोराणां मनोविज्ञानम्


1. प्रश्न: किशोरावस्था का क्या महत्व है?

उत्तर: किशोरावस्था वह अवस्था है जो बाल्य और युवावस्था के बीच आती है। इस समय व्यक्ति के शरीर और मन में गहन परिवर्तन होते हैं। बाल्य के कोमल लक्षण धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ते हैं और युवावस्था के गुण धीरे-धीरे प्रकट होने लगते हैं। इस समय मानसिक दृष्टि से किशोर संवेदनशील, स्वभाव में परिवर्तनशील और भावनाओं में अधिक प्रतिक्रियाशील होते हैं।

2. प्रश्न: पाठ में ‘कौमारं यौवन जरा’ से क्या अभिप्राय है?

उत्तर: इस वाक्य का अर्थ है जीवन की तीन मुख्य अवस्थाएँ। ‘कौमारं’ किशोरावस्था को, ‘यौवन’ युवावस्था को और ‘जरा’ वृद्धावस्था को दर्शाता है। यह वाक्य जीवन में क्रमिक परिवर्तन और समय के अनुसार शारीरिक और मानसिक विकास को समझाने का माध्यम है।

3. प्रश्न: उच्चविद्यालय में किशोरों की अवस्था कैसी होती है?

उत्तर: उच्चविद्यालय में किशोर और किशोरियाँ शारीरिक और मानसिक रूप से अभी पूरी तरह विकसित नहीं होते। उनके शरीर में बाल्यलक्षण धीरे-धीरे दूर होते हैं और युवावस्था के गुण प्रकट होने लगते हैं। मानसिक दृष्टि से वे संवेदनशील, स्वाभाविक और कभी-कभी अनुशासनहीन होते हैं। इस अवस्था में उन्हें मार्गदर्शन और देखभाल की आवश्यकता होती है।

4. प्रश्न: किशोरों के शरीर और मन में किस प्रकार परिवर्तन आता है?

उत्तर: किशोरावस्था में शरीर बाल्यलक्षणों से धीरे-धीरे मुक्त होकर युवावस्था की विशेषताओं को ग्रहण करता है। इसके साथ ही मन में भी बदलाव होते हैं—भावनाएँ अधिक संवेदनशील और कभी-कभी अस्थिर होती हैं, स्वैरवृत्ति और वृत्ति-विकार प्रकट होते हैं। किशोर अपने मित्रों और परिवार के प्रति अपनी भावनाओं और इच्छाओं को व्यक्त करने लगते हैं।

5. प्रश्न: बालक और किशोर में अंतर क्या है?

उत्तर: बालक बाल्यावस्था में कोमल, निर्भर और संवेदनशील होता है। उसके भाव और प्रतिक्रियाएँ सरल और अप्रभावित होती हैं। वहीं, किशोरावस्था में शरीर अधिक मजबूत और विकसित होता है, मानसिक क्षमता बढ़ती है, लेकिन स्वभाविक रूप से वे अनुशासन और नियमों की अनदेखी कर सकते हैं। किशोर अधिक स्वतंत्रता और स्वाभीष्ट दिशा की ओर झुकाव रखते हैं।

6. प्रश्न: पाठ में अनुशासन का महत्व क्या बताया गया है?

उत्तर: पाठ में कहा गया है कि किशोरों के लिए अनुशासन अत्यंत आवश्यक है। अनुशासन के अभाव में किशोरों में स्वैरवृत्ति, मनोवृत्ति विकार और अव्यवस्था बढ़ती है। इसलिए शिक्षकों और अभिभावकों को समय-समय पर संवाद, परामर्श और मार्गदर्शन द्वारा किशोरों को सही दिशा में मार्गदर्शित करना चाहिए। यह उनके व्यक्तिगत विकास और समाज में उचित स्थान सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है।

7. प्रश्न: साधन का महत्व किशोरावस्था में क्यों है?

उत्तर: किशोरावस्था में साधन और अवसर अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके बिना व्यक्ति की प्रतिभा और क्षमताओं का विकास संभव नहीं होता। यदि आवश्यक साधन उपलब्ध न हों, तो किशोर की इच्छाएँ और प्रयास निष्फल रह सकते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि किशोरों को सही साधन और मार्गदर्शन प्रदान किए जाएँ, ताकि उनकी स्वाभिलाषा और प्रयास सफल हो सकें और वे अपने लक्ष्य की ओर सही दिशा में अग्रसर हो सकें।

8. प्रश्न: ‘दैवं निहत्य पौरुषम्’ का अर्थ क्या है?

उत्तर: इसका आशय यह है कि यदि कोई कार्य करने में मनुष्य ने अपनी पूरी शक्ति, परिश्रम और पुरुषार्थ लगाया, फिर भी कार्य सफल नहीं हुआ, तो इसका दोष दैव या भाग्य पर नहीं ठहराना चाहिए। बल्कि, इसे अपने प्रयत्न और पुरुषार्थ का फल समझकर सीख लेना चाहिए। इससे यह संदेश मिलता है कि प्रयास का महत्व हमेशा बना रहता है और मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिए।

9. प्रश्न: प्रयास और पुरुषार्थ का महत्व क्या है?

उत्तर: पाठ के अनुसार, प्रयास और पुरुषार्थ जीवन में सफलता प्राप्त करने के मूल आधार हैं। यदि कोई कार्य पूर्ण प्रयास के बावजूद सिद्ध न हो, तो इसका दोष स्वयं प्रयास में नहीं, बल्कि बाहरी परिस्थितियों या अवसरों में माना जा सकता है। इसलिए, लगातार प्रयास करना और पुरुषार्थ दिखाना आवश्यक है, क्योंकि यही मनुष्य को लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है और उसकी योग्यता को परखता है।

10. प्रश्न: आलस्य का प्रभाव किस प्रकार होता है?

उत्तर: पाठ के अनुसार, आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। यह उसके उद्यम, पुरुषार्थ और कर्मशीलता में बाधा डालता है। आलस्य के कारण व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर सक्रियता और मेहनत नहीं कर पाता। इसलिए किशोरों को हमेशा सजग, सक्रिय और परिश्रमी रहना चाहिए, ताकि उनका समय और प्रयास व्यर्थ न जाए और वे अपने उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकें।

11. प्रश्न: स्वाभिलाष क्या है और इसका महत्व क्या है?

उत्तर: स्वाभिलाष का अर्थ व्यक्ति की अपनी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ होती हैं। पाठ में बताया गया है कि किशोरावस्था में स्वाभिलाष होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह उनके लक्ष्य और भविष्य के प्रति प्रेरणा का स्रोत बनता है। हालांकि, केवल इच्छाएँ होना पर्याप्त नहीं है; इन्हें साधना, प्रयास और सही मार्गदर्शन के साथ जोड़ना आवश्यक है। बिना साधना और प्रयास के स्वाभिलाष कुंठित रह जाता है और व्यक्तित्व का विकास अधूरा रह सकता है।

12. प्रश्न: जीवन में लक्ष्य का महत्व क्या है?

उत्तर: जीवन में लक्ष्य का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह व्यक्ति के प्रयासों और साधनों को दिशा प्रदान करता है। लक्ष्य के माध्यम से किशोर अपनी स्वाभिलाष और ऊर्जा को नियंत्रित और उपयोगी रूप से लगा सकते हैं। बिना लक्ष्य के प्रयास बिखरे हुए और अक्सर निष्फल रह जाते हैं। इसलिए, स्पष्ट और साध्य लक्ष्य निर्धारित करना जीवन की सफलता के लिए अनिवार्य है।

13. प्रश्न: संवाद और परामर्श का किशोरावस्था में महत्व क्या है?

उत्तर: किशोरावस्था में शारीरिक और मानसिक बदलाव तीव्र होते हैं, जिससे बच्चे कई बार भ्रम और अस्थिरता का अनुभव करते हैं। इस समय शिक्षक और अभिभावक द्वारा किए गए संवाद और परामर्श किशोरों को समझने, मार्गदर्शन देने और उनके स्वभाविक विकास में सहायक होते हैं। यह उन्हें अनुशासन, सही निर्णय और सकारात्मक व्यवहार अपनाने में मदद करता है, जिससे उनकी पूर्ण व्यक्तित्व विकास संभव होता है।

14. प्रश्न: जीवन में आशा और उत्साह क्यों आवश्यक हैं?

उत्तर: जीवन में आशा और उत्साह होने से व्यक्ति कठिन परिस्थितियों और असफलताओं का सामना हौसले और धैर्य के साथ कर पाता है। पाठ में बताया गया है कि उत्साह व्यक्ति को सक्रिय बनाता है और निरंतर प्रयास करने की प्रेरणा देता है। हालांकि, केवल उत्साह पर्याप्त नहीं है; प्रयास और साधन का सही उपयोग करना भी आवश्यक है, क्योंकि सफलता इन्हीं का परिणाम होती है।

15. प्रश्न: गीता का महत्व क्या है?

उत्तर: गीता, जिसे श्रीमद्भगवद्‌गीता कहा जाता है, कृष्ण द्वारा अर्जुन को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दिया गया उपदेश है। यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन, कर्म, धर्म और पुरुषार्थ का मार्गदर्शन करने वाला ज्ञानसागर है। गीता में बताया गया है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन निःस्वार्थ भाव से करना चाहिए और मनोबल बनाए रखना चाहिए। इसका अनुवाद विश्व की प्रमुख भाषाओं में हुआ है और यह आज भी सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

16. प्रश्न: गीता के कितने अध्याय हैं?

उत्तर: गीता में कुल 18 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे धर्म, कर्म, योग, पुरुषार्थ और मानसिक स्थिति पर विस्तारपूर्वक उपदेश दिया गया है। ये अध्याय हमें सही जीवनचर्या, कर्तव्य और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाते हैं।

17. प्रश्न: महापुरुषों का चरित्र किस प्रकार आदरणीय होता है?

उत्तर: पाठ में बताया गया है कि महापुरुष अपने चरित्र, व्यवहार और जीवन दृष्टि के कारण आदरणीय होते हैं। भले ही वे सीधे उपदेश न दें, उनकी जीवनशैली और अनुभव स्वयं में शिक्षाप्रद होते हैं। उनके आचरण और निर्णयों का अनुसरण करना समाज और व्यक्तिगत विकास के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होता है।

18. प्रश्न: कर्म का फल किस प्रकार प्राप्त होता है?

उत्तर: पाठ में बताया गया है कि किसी भी कर्म का फल व्यक्ति की बुद्धि, योजना और प्रयास के अनुसार प्राप्त होता है। केवल कर्म करना पर्याप्त नहीं होता; उसे समझदारी और विवेक के साथ करना आवश्यक है। बुद्धिमत्ता और परिश्रम के सही समन्वय से ही कार्य सफल होता है और अपेक्षित फल मिलता है।

19. प्रश्न: आलस्य से कैसे बचा जा सकता है?

उत्तर:पाठ में बताया गया है कि आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। इससे बचने के लिए व्यक्ति को अपने समय का सही उपयोग करना चाहिए, स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए और लगातार प्रयास करते रहना चाहिए। सक्रियता और अनुशासन से ही आलस्य पर काबू पाया जा सकता है और उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित होती है।

20. प्रश्न: स्वैरवृत्ति का क्या अर्थ है?

उत्तर: स्वैरवृत्ति का अर्थ है अपने मनमर्जी अनुसार कार्य करना, बिना किसी अनुशासन या नियम का पालन किए। किशोरावस्था में यह सामान्य प्रवृत्ति होती है, लेकिन इसे शिक्षक और अभिभावक के मार्गदर्शन तथा साधना के द्वारा नियंत्रित करना आवश्यक है, ताकि व्यक्ति सही दिशा में विकसित हो सके।


1. प्रश्न: किशोरावस्था किस प्रकार की अवस्था है?
उत्तर: 
किशोरावस्था बाल्यावस्था और युवावस्था के मध्य की महत्वपूर्ण अवस्था है। इस समय व्यक्ति के शरीर और मन में गहरे परिवर्तन होते हैं। बाल्य के कोमल और निर्भर लक्षण धीरे-धीरे समाप्त होकर युवावस्था के लक्षण विकसित होने लगते हैं। किशोर इस समय शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से अधिक संवेदनशील और परिवर्तनशील होते हैं।

2. प्रश्न: बाल्य और युवावस्था के बीच अंतराल क्या है?
उत्तर: 
बाल्य और युवावस्था के बीच का अंतराल किशोरावस्था कहलाता है। इस अवधि में किशोर शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक बदलावों से गुजरते हैं। शरीर धीरे-धीरे परिपक्व होता है और मन में स्वाभाविक स्वतंत्रता तथा स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति विकसित होती है।

3. प्रश्न: किशोरों के शारीरिक और मानसिक बदलाव किस प्रकार आते हैं?
उत्तर: 
किशोरावस्था में शरीर धीरे-धीरे बाल्य लक्षणों से मुक्त होकर युवावस्था के लक्षण अपनाता है। मानसिक रूप से इस समय स्वैरवृत्ति, आत्ममूल्यांकन, महत्वाकांक्षा, क्रोध और संवेदनशीलता जैसी भावनाएँ उभरती हैं। किशोर अपने मित्रों और परिवार के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करने लगते हैं।

4. प्रश्न: किशोरों के स्वभाव और व्यवहार में क्या परिवर्तन आता है?
उत्तर: 
किशोरावस्था में बच्चे अपने स्वभाव में अधिक स्वतंत्रता और साहस दिखाने लगते हैं। वे नियम और अनुशासन का पालन करने में अस्थिर हो सकते हैं। जब उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तो वे कभी-कभी क्रोध, असंतोष या निराशा व्यक्त कर सकते हैं।

5. प्रश्न: शिक्षकों और अभिभावकों की किशोरों के प्रति क्या भूमिका होनी चाहिए?
उत्तर: 
शिक्षकों और अभिभावकों का कर्तव्य है कि वे किशोरों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परिवर्तनों को समझें। उन्हें बच्चों के साथ नियमित संवाद करना चाहिए, सही मार्गदर्शन देना चाहिए और अनुशासन की ओर प्रेरित करना चाहिए। इसके साथ ही समय-समय पर प्रेमपूर्ण और सहयोगात्मक संबंध बनाए रखना भी आवश्यक है।

6. प्रश्न: स्वाभिलाष और साधना का किशोरावस्था में क्या महत्व है?
उत्तर: 
किशोरावस्था में व्यक्ति में स्वाभिलाष अर्थात अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की तीव्रता बढ़ती है। यदि साधन और अवसर उपलब्ध नहीं होते, तो ये इच्छाएँ और प्रयास निष्फल रह सकते हैं। इसलिए स्वाभिलाष को सही दिशा में लगाना, साधना करना और उपलब्ध साधनों का सही उपयोग करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह किशोर की प्रतिभा और व्यक्तित्व विकास में सहायक होता है।

7. प्रश्न: प्रयास और पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
उत्तर: 
जीवन में किसी भी कार्य की सफलता केवल प्रयास और पुरुषार्थ से ही संभव होती है। व्यक्ति को अपने शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य का पूरा उपयोग करना चाहिए। यदि पूरी मेहनत और पुरुषार्थ के बावजूद कार्य सिद्ध न हो, तो इसका दोष किसी व्यक्ति में नहीं, बल्कि परिस्थितियों में माना जाता है। यही विचार भगवद्गीता में भी व्यक्त किया गया है, जहाँ कर्म और पुरुषार्थ को जीवन में सर्वोच्च महत्व दिया गया है।

8. प्रश्न: दिवास्वप्न और मनोनुकूलता का अर्थ क्या है?
उत्तर: 
दिवास्वप्न का अर्थ है वह स्थिति जब व्यक्ति दिन में अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं के बारे में कल्पना करता है। यह मन की सक्रियता और भविष्य के लिए योजना बनाने की क्षमता को दर्शाता है। वहीं, मनोनुकूल दिशा का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी इच्छाओं, प्रयासों और निर्णयों को अपनी मानसिक और भौतिक परिस्थितियों के अनुकूल दिशा में संचालित करता है, ताकि प्रयासों का परिणाम अधिक सफल और उपयोगी हो।

9. प्रश्न: आलस्य का किशोर जीवन में क्या प्रभाव है?
उत्तर: 
पाठ में बताया गया है कि आलस्य किशोरों का प्रमुख शत्रु है। आलस्य के कारण शरीर और मन की ऊर्जा कमज़ोर होती है, पुरुषार्थ और प्रयत्न प्रभावित होते हैं, और किशोर अपने लक्ष्य और आकांक्षाओं की ओर सक्रिय रूप से नहीं बढ़ पाते। इसलिए किशोरों को समय का सदुपयोग करना, सक्रिय रहना और आलस्य से बचना आवश्यक है।

10. प्रश्न: प्रयास के बावजूद सफलता न मिलने पर क्या दृष्टिकोण होना चाहिए?
उत्तर: 
पाठ में बताया गया है कि यदि व्यक्ति ने पूर्ण प्रयास और पुरुषार्थ किया, फिर भी कार्य सफल नहीं हुआ, तो उसे आत्मग्लानि या निराशा नहीं होनी चाहिए। इसके बजाय, उसे अपने प्रयासों और पुरुषार्थ को मूल्यवान समझते हुए पुनः प्रयास करना चाहिए। यही दृष्टिकोण व्यक्ति को कठिनाइयों में भी आगे बढ़ने और लक्ष्य प्राप्ति में मदद करता है।

11–20

11. प्रश्न: गीता का उपदेश कहाँ और किसके द्वारा दिया गया था?
उत्तर: 
गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया था। अर्जुन युद्ध के समय मानसिक और नैतिक संकट में थे, तब कृष्ण ने उन्हें कर्म, धर्म, पुरुषार्थ और जीवन के सही मार्ग का ज्ञान दिया। इस उपदेश को गीता के रूप में संपूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक माना जाता है।

12. प्रश्न: गीता का ज्ञान किस प्रकार लाभप्रद है?
उत्तर: 
गीता का ज्ञान व्यक्ति को कर्म, धर्म और पुरुषार्थ की सही दिशा दिखाता है। यह मानसिक स्थिरता, साहस और विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है। गीता के अध्ययन से व्यक्ति अपने जीवन में नैतिक मूल्य स्थापित कर सकता है और कठिन परिस्थितियों में भी सही मार्ग पर चलना सीखता है।

13. प्रश्न: गीता में कितने अध्याय हैं और इसका वैश्विक महत्व क्या है?
उत्तर: 
गीता में कुल 18 अध्याय हैं। इसका वैश्विक महत्व इस तथ्य में निहित है कि इसका ज्ञान आज विश्व की अधिकांश प्रमुख भाषाओं में अनूदित हो चुका है। गीता का संदेश केवल भारत तक सीमित नहीं है; यह समस्त मानव जाति को नैतिक, आध्यात्मिक और जीवन के व्यवहारिक मार्गदर्शन प्रदान करता है।

14. प्रश्न: किशोरों में स्वैरवृत्ति क्या दर्शाती है?
उत्तर: 
किशोरों में स्वैरवृत्ति उनके स्वतंत्र विचारों और मानसिक परिवर्तन का संकेत है। इस अवस्था में वे अपनी इच्छाओं और निर्णयों में स्वतंत्रता चाहते हैं, जिससे कभी-कभी नियमों और अनुशासन का पालन करना उनके लिए कठिन हो जाता है।

15. प्रश्न: महत्वाकांक्षा और क्रोध किशोरों में कैसे प्रकट होते हैं?
उत्तर: 
किशोरावस्था में बच्चों में महत्वाकांक्षा स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। वे अपने लक्ष्य और इच्छाओं को पूरा करने के लिए प्रयासशील होते हैं। साथ ही, कभी-कभी छोटे-मोटे विरोध या असहमति पर वे अपने मित्रों और परिवार के प्रति क्रोध या आक्रोश व्यक्त कर देते हैं। यह मानसिक और भावनात्मक परिवर्तन किशोरावस्था के विकासात्मक लक्षण हैं।

16. प्रश्न: किशोरों में अनुशासन का महत्व क्यों है?
उत्तर: 
किशोरों के जीवन में अनुशासन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उन्हें अपने शारीरिक और मानसिक विकास के सही मार्ग पर बनाए रखता है। अनुशासन के माध्यम से वे अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रता और उत्साह के बीच संतुलन स्थापित कर सकते हैं। बिना अनुशासन के किशोर अपनी प्रवृत्तियों और उद्देश्यों को नियंत्रित नहीं कर पाते, जिससे उनके विकास में असंतुलन और संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।

17. प्रश्न: साधनाभाव का किशोरों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर: 
साधन और अवसरों की कमी किशोरों के जीवन में उनके स्वाभिलाष और प्रयासों को बाधित कर देती है। जब आवश्यक साधन उपलब्ध नहीं होते, तो उनकी प्रतिभा और मेहनत निष्फल रह जाती है। इसके परिणामस्वरूप मानसिक असंतोष, कुंठा और निराशा पैदा हो सकती है, जिससे उनका विकास पूरी तरह से प्रभावित होता है।

18. प्रश्न: जीवन में पुरुषार्थ का क्या स्थान है?
उत्तर: 
पुरुषार्थ जीवन में सफलता और प्रगति का आधार है। व्यक्ति को अपनी शक्ति, बुद्धि और प्रयासों का सही दिशा में उपयोग करना चाहिए। केवल प्रयत्न और पुरुषार्थ के माध्यम से ही लक्ष्यों की प्राप्ति संभव होती है। पुरुषार्थ के बिना सफलता असंभव है और जीवन में संतोष और सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता।

19. प्रश्न: आत्मशक्ति और प्रयास में क्या संबंध है?
उत्तर: 
आत्मशक्ति व्यक्ति के आंतरिक सामर्थ्य और दृढ़ निश्चय को दर्शाती है। जब व्यक्ति अपने प्रयासों के साथ अपनी आत्मशक्ति का सही उपयोग करता है, तभी कार्य में सफलता प्राप्त होती है। यदि प्रयास के बावजूद कार्य सिद्ध न हो, तो इसका दोष व्यक्ति में नहीं, बल्कि परिस्थितियों में माना जाना चाहिए। इसलिए प्रयास और आत्मशक्ति का संतुलित संयोजन अत्यंत महत्वपूर्ण है।

20. प्रश्न: आलस्य को जीतने के लिए क्या उपाय अपनाए जाने चाहिए?
उत्तर: 
आलस्य पर विजय पाने के लिए व्यक्ति को समय का सही उपयोग करना चाहिए, अपने लक्ष्य स्पष्ट रूप से निर्धारित करने चाहिए और लगातार अभ्यास व प्रयास में लगे रहना चाहिए। ये उपाय किशोरों को सक्रिय, उत्साही और सफल बनने में मदद करते हैं, जिससे उनके शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा नहीं आती।


Answer by Mrinmoee