Chapter 14
१–४० प्रश्न एवं उत्तर
1. प्रश्न: किशोरावस्था किस प्रकार की अवस्था है?
उत्तर: किशोरावस्था वह अवस्था है जो बाल्य और युवावस्था के मध्य आती है। इस समय शरीर और मन में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। बाल्य के कोमल लक्षण धीरे-धीरे कम होते हैं और युवावस्था के लक्षण उभरने लगते हैं। इस दौरान किशोर अधिक संवेदनशील, जिज्ञासु और उत्साही हो जाते हैं।
2. प्रश्न: बाल्य और युवावस्था में मुख्य अंतर क्या है?
उत्तर:बाल्य और युवावस्था में मुख्य अंतर शारीरिक और मानसिक विकास के स्तर में देखा जाता है। बाल्य में व्यक्ति अधिक निर्भर, कोमल और सरल स्वभाव का होता है, जबकि युवावस्था में शरीर परिपक्व हो जाता है और मन में स्वतंत्रता, स्वाभिलाष, महत्वाकांक्षा तथा स्वैरवृत्ति जैसी विशेषताएँ विकसित होती हैं।
3. प्रश्न: किशोरों में शारीरिक बदलाव किस प्रकार होते हैं?
उत्तर: किशोरावस्था में शारीरिक बदलाव धीरे-धीरे होते हैं। बाल्य के कोमल और नाजुक लक्षण कम होने लगते हैं और युवावस्था के लक्षण प्रकट होते हैं, जैसे शरीर की ऊँचाई बढ़ना, मांसपेशियों का विकास और शारीरिक शक्ति में वृद्धि। ये परिवर्तन किशोर की स्वास्थ्य स्थिति, क्षमता और दैनिक गतिविधियों पर प्रभाव डालते हैं।
4. प्रश्न: मानसिक और भावनात्मक बदलाव किशोरों में कैसे आते हैं?
उत्तर: किशोरों में मानसिक बदलावों में आत्ममूल्यांकन, महत्वाकांक्षा और स्वैरवृत्ति की प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं और अपनी स्वतंत्रता की चाह रखते हैं। भावनात्मक रूप से वे अधिक संवेदनशील, उत्साही और कभी-कभी अस्थिर हो सकते हैं, जिससे उनके व्यवहार में उतार-चढ़ाव दिखता है।
5. प्रश्न: शिक्षकों और अभिभावकों की किशोरों के प्रति क्या भूमिका होनी चाहिए?
उत्तर: किशोरों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों और अभिभावकों का कर्तव्य है कि वे उन्हें सही दिशा दिखाएँ। इसके लिए संवाद, मार्गदर्शन और अनुशासन का संतुलित प्रयोग आवश्यक है। साथ ही समय-समय पर स्नेहपूर्ण और सहयोगी संबंध बनाए रखना चाहिए, जिससे किशोर आत्मविश्वास और जिम्मेदारी महसूस करें।
6. प्रश्न: स्वाभिलाष और साधना का महत्व किशोरावस्था में क्या है?
उत्तर: किशोरावस्था में स्वाभिलाष और साधना का विशेष महत्व है क्योंकि यह समय व्यक्तित्व, इच्छाओं और आकांक्षाओं के विकास का होता है। यदि आवश्यक साधन और अवसर उपलब्ध न हों, तो किशोर की प्रतिभा और प्रयास सफल नहीं हो पाते। अतः स्वाभिलाष को नियंत्रित रूप से सही दिशा में लगाना और साधन का उचित उपयोग करना आवश्यक है, जिससे किशोर अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके और आत्मविश्वास विकसित कर सके।
7. प्रश्न: प्रयास और पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
उत्तर: प्रयास और पुरुषार्थ जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि किसी भी कार्य की सफलता केवल इन्हीं के माध्यम से संभव है। किशोरावस्था में यह विशेष रूप से आवश्यक है, जब व्यक्ति अपने लक्ष्य, आकांक्षा और क्षमताओं को पहचान कर उन्हें पूर्ण रूप से विकसित करता है। यदि किसी कार्य में पूर्ण प्रयास के बावजूद सफलता न मिले, तो इसका दोष व्यक्ति में नहीं, बल्कि परिस्थितियों में माना जाना चाहिए। इसी प्रकार गीता में भी यही संदेश दिया गया है कि कर्म और पुरुषार्थ का महत्व कभी कम नहीं होता।
8. प्रश्न: दिवास्वप्न और मनोनुकूलता का अर्थ क्या है?
उत्तर: दिवास्वप्न का अर्थ है वह अवस्था जिसमें किशोर दिन में अपने भविष्य के लक्ष्य, इच्छाएँ और सपनों के बारे में कल्पना करता है। यह कल्पनाएँ उन्हें प्रेरणा देती हैं, लेकिन केवल कल्पना पर्याप्त नहीं होती। मनोनुकूलता का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी इच्छाओं और प्रयासों को यथार्थ और अपने अनुकूल दिशा में नियंत्रित और संतुलित रूप से ले जाए, ताकि उनके प्रयास सार्थक और उपयोगी बनें।
9. प्रश्न: आलस्य का किशोर जीवन में क्या प्रभाव है?
उत्तर: पाठ में बताया गया है कि आलस्य किशोरों के विकास में सबसे बड़ा बाधक है। आलस्य से शरीर में ऊर्जा की कमी और मन में उदासीनता उत्पन्न होती है। इसके प्रभाव से किशोर अपने प्रयासों में निरंतरता नहीं बनाए रख पाते और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में विफल हो जाते हैं। इसलिए सक्रिय रहना और आलस्य से बचना आवश्यक है।
10. प्रश्न: प्रयास के बावजूद सफलता न मिलने पर दृष्टिकोण क्या होना चाहिए?
उत्तर: पाठ में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि व्यक्ति ने पूर्ण प्रयत्न किया, फिर भी सफलता नहीं मिली, तो उसे निराश या आत्मग्लानि में नहीं पड़ना चाहिए। ऐसे समय में धैर्य बनाए रखना और पुनः प्रयास करते रहना आवश्यक है। सफलता केवल प्रयास और पुरुषार्थ के संयोजन से ही संभव होती है, इसलिए उत्साह और संकल्प के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए।
11. प्रश्न: गीता का उपदेश कहाँ और किसके द्वारा दिया गया था?
उत्तर: गीता का उपदेश महाभारत के युद्धस्थल, कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को दिया था। अर्जुन उस समय युद्ध में संशय और मानसिक उथल-पुथल का सामना कर रहे थे। कृष्ण ने उन्हें जीवन के धर्म, कर्म और पुरुषार्थ के महत्व की शिक्षा दी और सही निर्णय लेने हेतु मार्गदर्शन प्रदान किया।
12. प्रश्न: गीता का ज्ञान किस प्रकार लाभप्रद है?
उत्तर: गीता का ज्ञान व्यक्ति को अपने कर्तव्यों और धर्मों की समझ प्रदान करता है। यह साहस, पुरुषार्थ और मानसिक दृढ़ता विकसित करने में सहायक है। गीता का अध्ययन करने से व्यक्ति के जीवन में निर्णय लेने की क्षमता स्पष्ट होती है और नैतिक मूल्य दृढ़ बनते हैं।
13. प्रश्न: गीता में कितने अध्याय हैं और इसका वैश्विक महत्व क्या है?
उत्तर: गीता में कुल 18 अध्याय हैं। इसका वैश्विक महत्व इस कारण है कि इसे विश्व की अनेक प्रमुख भाषाओं में अनूदित किया जा चुका है। गीता का ज्ञान मानव जाति को नैतिकता, कर्म, धर्म और आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करता है।
14. प्रश्न: किशोरों में स्वैरवृत्ति क्या दर्शाती है?
उत्तर: किशोरों में स्वैरवृत्ति उनके स्वतंत्र विचारों और भावनाओं के विकास को दर्शाती है। इस अवस्था में वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं और कभी-कभी अनुशासन या नियमों का पालन करने में कठिनाई महसूस करते हैं।
15. प्रश्न: महत्वाकांक्षा और क्रोध किशोरों में कैसे प्रकट होते हैं?
उत्तर: किशोरावस्था में बच्चों में महत्वाकांक्षा और क्रोध स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। वे अपने लक्ष्यों और इच्छाओं को पूरा करने के लिए उत्सुक रहते हैं और जब उनकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती, तो मित्रों या परिवार के प्रति आक्रोश प्रकट कर सकते हैं। यह उनकी शारीरिक और मानसिक विकास प्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा है।
16. प्रश्न: किशोरों में अनुशासन का महत्व क्यों है?
उत्तर:किशोरों में अनुशासन अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यह उन्हें जीवन में सही मार्ग दिखाता है। अनुशासन उनकी स्वच्छन्दता और उत्साह के बीच संतुलन बनाता है, जिससे वे व्यवस्थित और जिम्मेदार बनते हैं। इसके बिना उनका विकास असंतुलित और संघर्षपूर्ण हो सकता है।
17. प्रश्न: साधनाभाव का किशोरों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर: किशोरों में साधनों की कमी उनके विकास और प्रयासों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। जब वे अपनी इच्छाओं और स्वाभिलाषों को पूरा करने के लिए आवश्यक साधन नहीं पाते, तो उनकी प्रतिभा और मेहनत व्यर्थ हो जाती है। इससे वे मानसिक असंतोष, निराशा और कुंठा अनुभव कर सकते हैं।
18. प्रश्न: जीवन में पुरुषार्थ का क्या स्थान है?
उत्तर: जीवन में पुरुषार्थ का अत्यधिक महत्व है क्योंकि यह सफलता और आत्मसिद्धि की नींव रखता है। केवल इच्छाएँ और स्वप्न पर्याप्त नहीं होते; व्यक्ति को अपने प्रयास, समय और शक्ति का सही उपयोग करना आवश्यक है। पुरुषार्थ के बिना किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है।
19. प्रश्न: आत्मशक्ति और प्रयास में क्या संबंध है?
उत्तर:आत्मशक्ति व्यक्ति के भीतर मौजूद आंतरिक शक्ति और सहनशीलता को व्यक्त करती है। जब यह आत्मशक्ति प्रयास के साथ संयोजित होती है, तभी किसी कार्य की सफलता सुनिश्चित होती है। यदि प्रयास असफल हो, तो इसका दोष व्यक्ति में नहीं, बल्कि परिस्थितियों में माना जाता है।
20. प्रश्न: आलस्य को जीतने के लिए क्या उपाय अपनाए जाने चाहिए?
उत्तर: आलस्य पर विजय पाने के लिए व्यक्ति को अपने समय का सही उपयोग करना चाहिए। उसे स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए और नियमित अभ्यास तथा निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए। ऐसे उपाय किशोरों को सक्रिय, स्वावलंबी और सफल बनाने में सहायक होते हैं।
21. प्रश्न: विवेक और धनञ्जय ने विद्यालय में किस प्रकार भाग लिया?
उत्तर: विवेक और धनञ्जय समय पर विद्यालय पहुँचे और शिक्षक के आदेशों का पालन करते हुए सभी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके इस व्यवहार से उनकी जिम्मेदारी और अनुशासन की भावना स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हुई।
22. प्रश्न: गीता का संदेश किस प्रकार किशोरों के लिए महत्वपूर्ण है?
उत्तर: गीता का संदेश किशोरों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उन्हें कर्म के प्रति निष्ठावान रहने, पुरुषार्थ के महत्व को समझने और मानसिक दृढ़ता विकसित करने की शिक्षा देती है। इसके अध्ययन से किशोर अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में अनुशासन और जीवन में नैतिक मूल्यों का पालन कर सकते हैं।
23. प्रश्न: बालकों में स्वाभिलाष का सकारात्मक प्रभाव क्या है?
उत्तर: बालकों में स्वाभिलाष उन्हें अपने लक्ष्यों की ओर प्रेरित करता है और प्रयास में निरंतरता बनाए रखने की शक्ति देता है। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है और मानसिक ऊर्जा सक्रिय रहती है, जो उनके सर्वांगीण विकास में सहायक होती है।
24. प्रश्न: आलस्य और स्वैरवृत्ति में क्या अंतर है?
उत्तर:आलस्य वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति काम करने में सुस्त और निष्क्रिय रहता है, जबकि स्वैरवृत्ति उस समय प्रकट होती है जब किशोर स्वतंत्रता की भावना के कारण नियमों या अनुशासन का पालन नहीं करता। आलस्य सीधे नकारात्मक प्रभाव डालता है, वहीं स्वैरवृत्ति मार्गदर्शन मिलने पर रचनात्मक और सकारात्मक दिशा में बदल सकती है।
25. प्रश्न: प्रयास और साधना में संबंध कैसे स्थापित होता है?
उत्तर: प्रयास और साधना परस्पर संबंध रखते हैं। साधना व्यक्ति को लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग और दिशा दिखाती है, जबकि प्रयास उस मार्ग पर क्रियान्वयन और मेहनत करता है। दोनों का सामंजस्य होने पर ही कार्य में सफलता प्राप्त होती है।
26. प्रश्न: शिक्षकों का किशोरों के विकास में क्या योगदान है?
उत्तर: शिक्षक किशोरों के विकास में मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं। वे उनकी मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक स्थिति को समझकर उन्हें अनुशासन, नैतिक मूल्यों और ज्ञान की ओर प्रेरित करते हैं।
27. प्रश्न: किशोरों में आत्ममूल्यांकन क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: आत्ममूल्यांकन किशोरों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से वे अपनी क्षमताओं और कमज़ोरियों को पहचानते हैं। यह उन्हें अपने लक्ष्य तय करने, प्रयासों में सुधार करने और समग्र विकास में सहायक होता है।
Answer by Mrinmoee