Chapter 4

औद्योगीकरण का युग


निम्नलिखित की व्याख्या करें- 

(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए।

उत्तर;  सत्रहवीं ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले इसलिए किए क्योंकि उन्हें डर था कि इन मशीनों के इस्तेमाल से उनके रोजगार पर खतरा मंडरा रहा था। स्पिनिंग जेनी एक स्वचालित कताई मशीन थी, जिसे 1764 में जेम्स हारग्रीव्स ने विकसित किया था। इस मशीन के आविष्कार से सूती धागा बनाने की प्रक्रिया में क्रांतिकारी बदलाव आया और बड़ी मात्रा में उत्पादन संभव हुआ।

महिलाएँ, जो पारंपरिक रूप से कताई और बुनाई के कार्यों में लगी हुई थीं, इस तकनीकी बदलाव से भयभीत हो गईं क्योंकि स्पिनिंग जेनी के आने से उनके द्वारा किए जाने वाले काम की ज़रूरत घट सकती थी। साथ ही, इन्हें कम मेहनत से अधिक उत्पादन की उम्मीद थी, जिससे महिलाएँ अपनी रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करने लगीं।

इस डर और असंतोष के कारण, कुछ महिलाओं ने लुडाइट आंदोलन (जो कि मशीनों के खिलाफ था) के तहत स्पिनिंग जेनी और अन्य औद्योगिक मशीनों पर हमले किए। वे मानती थीं कि ये मशीनें उनके जीवन और कामकाजी परिस्थितियों को प्रभावित कर रही हैं और उनके पारंपरिक काम की जगह ले रही हैं।

इस प्रकार, महिलाओं के हमले यह दर्शाते थे कि औद्योगीकरण के शुरुआती दौर में तकनीकी प्रगति ने पारंपरिक श्रमिकों, खासकर महिलाओं के लिए कठिनाइयाँ और बेरोजगारी के संकट को जन्म दिया।शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।

ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।

उत्तर; सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे क्योंकि वे घरेलू उत्पादन या कुटीर उद्योग के रूप में काम करने लगे थे। इस व्यवस्था को घरेलू प्रणाली (Putting-out System) कहा जाता है। 

इस प्रणाली में, यूरोपीय व्यापारियों और औद्योगिक मालिकों ने किसानों और  कारीगरों को अपने घरों में काम करने के लिए सामान मुहैया कराया। सौदागर कच्चा माल जैसे कपास, ऊन, या चमड़ा आपूर्ति करते थे और उसे गाँवों या छोटे शहरों के कारीगरों या किसानों को दिया जाता था, जो उसे तैयार उत्पाद में बदलते थे। कारीगर इस सामान को अपने घरों में बना लेते थे और फिर तैयार माल को व्यापारी या सौदागर के पास वापस भेज देते थे। 

यह प्रणाली इसलिए विकसित हुई क्योंकि  कारखाने और औद्योगिक उत्पादन का प्रारंभिक दौर यूरोप में अब तक नहीं था। इसके अलावा, शहरों में भूमि और संसाधन की कमी थी, जबकि गाँवों में काम करने के लिए पर्याप्त श्रमिक उपलब्ध थे। व्यापारियों को यह सस्ता और लाभकारी तरीका लगता था, क्योंकि वे कच्चे माल को सस्ते दामों पर खरीद सकते थे और उत्पादित माल को उच्च कीमतों पर बेच सकते थे। 

इस व्यवस्था से कारीगरों और किसानों को भी आय का एक अतिरिक्त स्रोत मिलता था, लेकिन यह कामकाजी परिस्थितियाँ कठोर थीं। उन्हें काम की नियमितता और भुगतान में असमानता का सामना करना पड़ता था, और अक्सर उनके लिए कोई सुनिश्चितता नहीं होती थी। इसके बावजूद, यह प्रणाली यूरोपीय व्यापारियों और औद्योगिक मालिकों के लिए बहुत लाभकारी साबित हुई और औद्योगिकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

 (ग) सूरत बंदरगाह अठारहवीं सदी के अंत तक हाशिये पर पहुँच गया था।

उत्तर; सूरत बंदरगाह अठारहवीं सदी के अंत तक हाशिये पर पहुँच गया था क्योंकि इसके व्यापारिक महत्त्व में गिरावट आ गई थी। यह स्थिति कई कारणों से हुई:


1. ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय शक्तियों का प्रभाव: सूरत का व्यापार पहले पुर्तगालियों और बाद में डच, ब्रिटिश, और फ्रांसीसी व्यापारियों द्वारा नियंत्रित था। लेकिन अठारहवीं सदी के अंत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुंबई (बंबई) को अपनी व्यापारिक केंद्र के रूप में चुना। इससे सूरत का महत्व घटने लगा क्योंकि बंबई में बेहतर बंदरगाह सुविधाएँ और आधुनिक व्यापारिक प्रबंधन था।

2. सूरत का भू-राजनीतिक महत्व: सूरत बंदरगाह का भू-राजनीतिक  स्थान भी बदल गया। मुघल साम्राज्य की सत्ता में गिरावट और मराठा शक्ति के बढ़ने से सूरत पर इसका असर पड़ा। मराठों और अन्य शक्तियों के बीच युद्धों के कारण सूरत को व्यापार में रुकावटों का सामना करना पड़ा।

3. कन्वर्टेड शिपिंग मार्गों की वजह से प्रतिस्पर्धा: 18वीं सदी के अंत तक, यूरोपीय शक्तियाँ व्यापार मार्गों को पुनः स्थापित करने लगीं। बंबई, मद्रास और कलकत्ता जैसे अन्य बंदरगाहों ने सूरत के मुकाबले बेहतर शिपिंग सुविधाएं दीं, जिससे सूरत का व्यापारिक महत्त्व घटने लगा।

इन सभी कारणों से सूरत का बंदरगाह धीरे-धीरे हाशिये पर चला गया और उसे प्रमुख व्यापारिक केंद्र का दर्जा खोना पड़ा।

 (घ) ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था।

उत्तर; ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था क्योंकि कंपनी को यह सुनिश्चित करना था कि भारतीय बुनकरों द्वारा तैयार किया गया कपड़ा ब्रिटेन में निर्यात के लिए पर्याप्त मात्रा में और उच्च गुणवत्ता में तैयार हो। इसके पीछे कुछ मुख्य कारण थे:


1. निर्यात की निगरानी: ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से निर्यात किए जाने वाले कपड़े की गुणवत्ता और मात्रा पर कड़ी निगरानी रखना चाहती थी ताकि ब्रिटेन में भारतीय कपड़े की मांग और आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सके। 

2. बुनकरों का शोषण: कंपनी को यह सुनिश्चित करने के लिए गुमाश्तों की नियुक्ति करनी पड़ी कि बुनकरों से सही कीमत पर काम लिया जाए और उनके उत्पादों का मूल्य अधिकतम लाभ के लिए कंपनी के पक्ष में हो। गुमाश्तों ने बुनकरों से कपड़े की कीमतें तय करने, उत्पादन की गति को बढ़ाने, और उन्हें नियंत्रित करने का कार्य किया।

3. निगरानी और नियंत्रण: गुमाश्ते बुनकरों की गतिविधियों पर निगरानी रखते थे, ताकि वे कोई भी काम छोड़कर कंपनी के नियमों और आदेशों का पालन करें। बुनकरों को अपनी स्वतंत्रता और पारंपरिक तरीकों के अनुसार काम करने में कई बार दिक्कतों का सामना करना पड़ता था, क्योंकि उन्हें यूरोपीय बाजार की मांगों के अनुसार अपने उत्पादों में बदलाव करना पड़ता था।

इस प्रकार, गुमाश्तों की नियुक्ति  ने बुनकरों के कामकाजी माहौल को बहुत प्रभावित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने व्यापार को अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के अनुसार नियंत्रित किया।

 2. प्रत्येक वक्तव्य के आगे 'सही' या 'गलत' लिखें-

1. ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए।

उत्तर: सही

2. सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।**  

उत्तर: सही

3. सूरत बंदरगाह अठारहवीं सदी के अंत तक हाशिये पर पहुँच गया था।

उत्तर: सही

4. ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था।  

उत्तर: सही

(क) उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की कुल श्रम शक्ति का 80 प्रतिशत तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहा था।

उत्तर; उत्तर: गलत उन्नीसवीं सदी के अंत में यूरोप की कुल श्रम शक्ति का एक बड़ा हिस्सा कृषि और अन्य पारंपरिक क्षेत्रों में काम कर रहा था, जबकि औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।

 (ख) अठारहवीं सदी तक माहीन कपड़े के अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर भारत का दबदबा था।

उत्तर; सही  अठारहवीं सदी तक भारत का माहीन कपड़े (जैसे कि बनारसी साड़ियाँ और कालिको) का अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर प्रमुख दबदबा था, और भारतीय कपड़े यूरोप और अन्य स्थानों में अत्यधिक लोकप्रिय थे।

 (ग) अमेरिकी गृहयुद्ध के फलस्वरूप भारत के कपास निर्यात में कमी आई।

उत्तर; सही अठारहवीं सदी तक भारत का माहीन कपड़े (जैसे कि बनारसी साड़ियाँ और कालिको) का अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर प्रमुख दबदबा था, और भारतीय कपड़े यूरोप और अन्य स्थानों में अत्यधिक लोकप्रिय थे।

 (घ) प्लाई शटल के आने से हथकरघा कामगारों की उत्पादकता में सुधार हुआ। 

उत्तर; प्लाई शटल के आने से हथकरघा कामगारों की उत्पादकता में सुधार हुआ। इससे बुनाई की गति तेज हुई और श्रमिकों को कम समय में अधिक कपड़ा बनाने में मदद मिली। 

  • कृषि आधारित अर्थव्यवस्था: अधिकांश लोग खेती पर निर्भर थे और उत्पादन का मुख्य रूप से कृषि से जुड़ा हुआ था।
  • हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग: कपड़े, बर्तन, हथियार, गहने आदि का निर्माण छोटे स्तर पर किया जाता था, जहां काम के लिए मजदूरी पर व्यक्ति काम करते थे।
  • सीमित तकनीकी विकास: औद्योगिक उपकरण और मशीनों का उपयोग नहीं किया जाता था। उत्पादन का तरीका पारंपरिक था और पुराने उपकरणों से किया जाता था।
  • व्यापार का सीमित विस्तार: व्यापार छोटे स्तर पर होता था, और ज्यादातर सामान स्थानीय बाजारों में बिकते थे।सामाजिक संरचना: सामाजिक संरचना आमतौर पर सामंती थी, जिसमें उच्च वर्ग के लोग ज़्यादातर भूमि और संसाधनों के मालिक होते थे, जबकि श्रमिक वर्ग अपने जीवन यापन के लिए कृषि कार्य या हस्तशिल्प पर निर्भर होते थे।

उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपतियों द्वारा मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता देने के कारण:

  1. सस्ते श्रमिक: उस समय मजदूरों का वेतन मशीनों के मुकाबले काफी कम था। मशीनों के मुकाबले, श्रमिकों को काम पर रखना उद्योगपतियों के लिए सस्ता विकल्प था, क्योंकि उन्हें स्थायी वेतन और लाभ के रूप में अन्य खर्चों की तुलना में कम खर्च करना पड़ता था।
  2. मशीनों का अभाव: उन्नीसवीं सदी के शुरूआती दौर में, यूरोप में सभी उद्योगों में मशीनों का इस्तेमाल सामान्य नहीं था। अधिकांश छोटे उद्योगों और कुटीर उद्योगों में श्रमिकों का उपयोग अधिक होता था। मशीनों का उपयोग सीमित था, और सभी उद्योगों में इसे लागू करना तकनीकी रूप से या वित्तीय रूप से संभव नहीं था।
  3. हस्तनिर्मित वस्त्रों की मांग: यूरोप में कुटीर उद्योग और हस्तशिल्प उत्पादों की मांग अभी भी बहुत ज्यादा थी। खासतौर पर वस्त्र उद्योग में, जहां गुणवत्ता और डिज़ाइन की बारीकियों की आवश्यकता होती थी, वहाँ श्रमिकों द्वारा किया गया हाथ से काम (जैसे कढ़ाई, बुनाई) बेहतर समझा जाता था।
  4. मशीनों की उच्च लागत: मशीनों की स्थापना और संचालन के लिए बड़े निवेश की आवश्यकता थी। शुरुआती दौर में, छोटे उद्योगपति और व्यापारी मशीनों के उच्च प्रारंभिक लागत से बचने के लिए श्रमिकों को प्राथमिकता देते थे।
  5. स्थानीय और छोटे पैमाने पर उत्पादन: उस समय उद्योगों में बड़े पैमाने पर उत्पादन की क्षमता नहीं थी। श्रमिकों का उपयोग छोटे पैमाने पर और स्थानीय रूप से किया जाता था, जहां उन्हें अपनी पारंपरिक तकनीकों और कौशल का उपयोग करने की आज़ादी थी।
  6. मशीनों के प्रति संकोच: कुछ उद्योगपतियों को मशीनों की क्षमता पर संदेह था। उन्हें लगता था कि हाथ से काम करने वाले श्रमिक अधिक वफादार और कुशल होते हैं, जबकि मशीनों का संचालन और रखरखाव एक चुनौती हो सकता था।

 2. ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया।

उत्तर;

  • बुनकरों के लिए जमीनी स्तर पर नेटवर्क स्थापित करना: ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से नियमित आपूर्ति प्राप्त करने के लिए स्थानीय व्यापारियों और बिचौलियों का एक नेटवर्क स्थापित किया। यह नेटवर्क बुनकरों तक पहुँचने और उनके द्वारा उत्पादित कपड़ों की आपूर्ति को सुनिश्चित करने में मदद करता था।
  • ठेकेदारों और जॉबरों का प्रयोग: कंपनी ने व्यापारियों और ठेकेदारों (जॉबरों) का उपयोग किया, जो बुनकरों से संपर्क करते थे और उनके काम को नियंत्रित करते थे। ये जॉबर बुनकरों से कपड़े बनवाते थे और उन्हें कंपनी को सप्लाई करने के लिए प्रेरित करते थे। इस प्रक्रिया में बुनकरों को किसी प्रकार का विश्वास और सहारा मिल जाता था।
  • निश्चित कीमत पर अनुबंध: ईस्ट इंडिया कंपनी ने बुनकरों के साथ निश्चित कीमतों पर अनुबंध किए, जिससे बुनकरों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिलता था और उनके लिए कंपनी को नियमित आपूर्ति करना लाभकारी बनता था।
  • मूल्य नियंत्रण और वित्तीय प्रोत्साहन: कंपनी ने बुनकरों को कपड़े बनाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन दिए, जैसे कि अग्रिम भुगतान या कर्ज प्रदान करना। इसके माध्यम से बुनकरों को उत्पादन जारी रखने के लिए आर्थिक सहायता मिलती थी।
  • निर्यात के लिए बाजारों की स्थापना: ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय कपड़ों को यूरोपीय और अन्य अंतरराष्ट्रीय बाजारों में निर्यात करने के लिए एक मजबूत प्रणाली बनाई। इससे भारतीय बुनकरों के लिए एक स्थिर और नियमित बाज़ार सुनिश्चित हुआ।

 3. कल्पना कीजिए कि आपको ब्रिटेन तथा कपास के इतिहास के बारे में विश्वकोश  के लिए लेख लिखने को कहा गया है। इस अध्याय में दी गई जानकारियों के आधार पर अपना लेख लिखिए।

उत्तर; कपास का इतिहास और ब्रिटेन में इसका प्रभाव

कपास, एक महत्वपूर्ण कृषि उत्पाद, जो प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता का अभिन्न हिस्सा रहा है, ब्रिटेन और दुनिया भर के औद्योगिक विकास में एक निर्णायक भूमिका निभाता है। विशेष रूप से, ब्रिटेन में कपास का इतिहास औद्योगीकरण के साथ गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। इस लेख में हम कपास की खेती, उत्पादन, और ब्रिटेन के औद्योगिक इतिहास में इसके महत्व पर विचार करेंगे।

कपास की उत्पत्ति और प्रसार

कपास का पौधा प्राचीन काल से ही भारत, अफ्रीका, और मध्य पूर्व में उगाया जाता रहा है। इसका प्राकृतिक रूप से भारत और मध्य एशिया में विस्तार हुआ, जहां से इसे अन्य हिस्सों में फैलाया गया। भारत में कपास की खेती का इतिहास हजारों साल पुराना है। ब्रिटेन में इसका परिचय 16वीं और 17वीं शताबदी में हुआ, जब यूरोपीय व्यापारी और उपनिवेशीकरण के दौर में कपास का आयात बढ़ने लगा। इसके बाद कपास के व्यापार ने औद्योगिक क्रांति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ब्रिटेन में कपास का आगमन और औद्योगिकरण

18वीं सदी के अंत में, ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के दौरान कपास का उद्योग तेजी से विकसित हुआ। ब्रिटेन ने अपनी मिलों में कपास के धागे और कपड़े का उत्पादन शुरू किया, जो पहले से ही भारतीय बाजारों में लोकप्रिय था। ब्रिटिश व्यापारी और उद्योगपति, जैसे मैनचेस्टर के कारख़ाने, कपास का आयात भारत और अन्य उपनिवेशों से करते थे। ब्रिटेन ने इन क्षेत्रों में कपास की खेती को बढ़ावा दिया और इससे मिलने वाले कच्चे माल का उपयोग अपनी मिलों में करने की प्रक्रिया को तेज किया।

कपास उद्योग का विकास और मैनचेस्टर का उदय

मैनचेस्टर, जिसे 'कॉटन के नगर' के नाम से जाना जाता है, कपास उद्योग के केन्द्र के रूप में उभरा। मैनचेस्टर में 19वीं सदी के दौरान कपास की मिलों का निर्माण हुआ और यहाँ से उत्पादित सूती कपड़े दुनिया भर में निर्यात किए गए। यहाँ के कारखाने और उत्पादन विधियाँ ब्रिटेन की औद्योगिक शक्ति को प्रदर्शित करती थीं, जहाँ मशीनों का उपयोग किया जाता था, जो हाथ से काम करने की विधियों से कहीं अधिक तेजी से उत्पादन करती थीं।

ब्रिटेन में कपास के उत्पादन की वृद्धि

कपास उद्योग के विकास ने ब्रिटेन को विश्व के प्रमुख निर्यातक देशों में शामिल किया। 19वीं सदी के मध्य तक, ब्रिटेन का कपास उद्योग वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का एक प्रमुख हिस्सा बन चुका था। कपास के उत्पादन में वृद्धि के कारण ब्रिटेन ने सस्ते और उच्च गुणवत्ता वाले कपड़े का उत्पादन शुरू किया, जो यूरोपीय और अमेरिकी बाजारों में प्रमुख रूप से बेचे गए। यह व्यापार ब्रिटेन की औद्योगिक शक्ति को बढ़ाने के साथ-साथ वैश्विक आर्थिक स्थिति में बदलाव लाने का कारण बना।

कपास और उपनिवेशीकरण का संबंध

ब्रिटेन के कपास उद्योग की वृद्धि और सफलता में उपनिवेशीकरण का भी महत्वपूर्ण योगदान था। ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत, अफ्रीका, और अन्य क्षेत्रों में कपास की खेती को प्रोत्साहित किया और इन क्षेत्रों से सस्ता कच्चा माल प्राप्त किया। इस प्रक्रिया ने न केवल औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा दिया, बल्कि इन उपनिवेशों की अर्थव्यवस्थाओं पर ब्रिटेन का नियंत्रण भी मजबूत किया।

निष्कर्ष

 4. पाहले विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा?

उत्तर;

  • ब्रिटिश कारखानों का युद्ध संबंधी उत्पादन में व्यस्त होना: युद्ध के दौरान ब्रिटिश कारखाने मुख्य रूप से सैनिक सामग्री, हथियार, गोला-बारूद और अन्य युद्ध संबंधी उत्पादों के निर्माण में व्यस्त हो गए थे। इस कारण, ब्रिटेन से भारत में आने वाली वस्तुओं की आपूर्ति कम हो गई। इसका प्रभाव भारतीय बाजारों पर पड़ा, क्योंकि भारत को अब ब्रिटेन से कम वस्त्र, कपड़े और अन्य आवश्यक सामग्रियाँ मिल रही थीं।
  • भारत में घरेलू उत्पादन की बढ़ती आवश्यकता: ब्रिटेन से आयात में कमी के कारण, भारत में घरेलू उत्पादन की आवश्यकता और मांग बढ़ गई। भारतीय उद्योगपतियों ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपनी फैक्ट्रियों में युद्ध सामग्री जैसे जूट की बोरियाँ, सैनिकों के कपड़े, टेंट, चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन, और अन्य आवश्यक सामग्री का उत्पादन करना शुरू कर दिया।
  • नए कारखानों की स्थापना: युद्ध के दौरान, भारतीय उद्योगपतियों ने नए कारखानों का निर्माण करना शुरू किया। युद्ध सामग्री की आपूर्ति के लिए नए उद्योग स्थापित किए गए, जिससे औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई। यह वृद्धि मुख्य रूप से कपड़ा उद्योग, जूट उद्योग और अन्य कच्चे माल से जुड़े उद्योगों में देखी गई।
  • स्थानीय आपूर्ति श्रृंखला का विकास: ब्रिटिश साम्राज्य के लिए युद्ध संबंधी वस्त्र और सामग्री की आपूर्ति करना कठिन हो गया था। इसके परिणामस्वरूप, भारतीय कारखानों में उत्पादन बढ़ाने के लिए कदम उठाए गए ताकि स्थानीय आपूर्ति को बढ़ावा दिया जा सके और भारतीय सेना तथा प्रशासन की जरूरतों को पूरा किया जा सके।
  • युद्ध से प्रेरित नई तकनीक और उत्पादन विधियाँ: युद्ध के दौरान, औद्योगिक उत्पादन में तीव्रता लाने के लिए नई तकनीकों और उत्पादन विधियों को अपनाया गया। यह प्रक्रिया भारतीय उद्योगों के आधुनिकीकरण की दिशा में एक कदम था, जिससे उत्पादन क्षमता में वृद्धि हुई।