Chapter 10 

                                                  ईर्ष्या : तू न गई मेरे मन से



1. प्रश्न: रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के निबंध में जीवन के संतुलन पर क्या दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है?

उत्तर:दिनकर जीवन में संतुलन को अत्यंत आवश्यक मानते हैं। उनका मत है कि केवल भौतिक सुख या सामाजिक प्रतिष्ठा पर निर्भर होकर कोई व्यक्ति सच्ची संतुष्टि नहीं पा सकता। असली सुख उस मानसिक और नैतिक संतुलन में है जो व्यक्ति के भीतर होता है। निबंध में वकील साहब के उदाहरण से यह स्पष्ट किया गया कि भले ही किसी के पास सभी संसाधन हों, यदि उसका मन दूसरों की संपत्ति या सफलता को देखकर जलता है, तो वह सच्चा सुख अनुभव नहीं कर सकता। संतुलित जीवन का मतलब है अपने सुख-दुःख को समझना, अपने गुणों को बढ़ाना और दूसरों से तुलना करके अपने मन को कष्ट में नहीं डालना।


2. प्रश्न: वकील साहब के उदाहरण से ईर्ष्या के प्रभाव को कैसे समझाया गया है?

उत्तर:वकील साहब का उदाहरण इस बात को स्पष्ट करता है कि ईर्ष्या व्यक्ति के मन और चरित्र पर गहरा नकारात्मक असर डालती है। भले ही वकील साहब के पास परिवार, नौकर और सभी भौतिक संसाधन हैं, वे फिर भी संतुष्ट नहीं हैं। इसका मुख्य कारण उनकी ईर्ष्या है, जो उन्हें पड़ोसी बीमा एजेंट की सफलता और जीवनशैली देखकर लगातार परेशान करती रहती है। दिनकर बताते हैं कि ईर्ष्या व्यक्ति को अपने पास मौजूद सुखों का आनंद लेने से रोकती है और दूसरों की वस्तुओं या स्थिति को देखकर दुःख देती है। इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि ईर्ष्या न केवल मानसिक कष्ट पैदा करती है बल्कि जीवन में वास्तविक सुख की अनुभूति को भी नष्ट कर देती है।

3. प्रश्न: ईर्ष्या और निंदा के बीच संबंध क्या है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार ईर्ष्या और निंदा आपस में जुड़े हुए हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति केवल दूसरों की सफलता देखकर जलता ही नहीं, बल्कि उन्हें नीचा दिखाने के लिए निंदा भी करता है। इसका मकसद अक्सर अपने आप को श्रेष्ठ दिखाना होता है। निंदा करने वाला व्यक्ति अपने भीतर के गुणों और व्यक्तिगत विकास पर ध्यान देने के बजाय दूसरों को गिराने में अपनी ऊर्जा और समय गवां देता है। दिनकर स्पष्ट करते हैं कि निंदा करने से केवल व्यक्ति के आंतरिक दोष उजागर होते हैं और इससे किसी की उन्नति नहीं होती।

4. प्रश्न: ईर्ष्या का सामाजिक और मानसिक प्रभाव क्या होता है?

उत्तर:ईर्ष्या का असर केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह समाज पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। मानसिक रूप से ईर्ष्या व्यक्ति को दुखी, असंतुष्ट और चिंताग्रस्त बनाती है। यह उसके जीवन में आनंद और संतोष को समाप्त कर देती है और लगातार दूसरों से तुलना करने पर मजबूर करती है। सामाजिक दृष्टि से, ईर्ष्या से नकारात्मक भावनाएँ, द्वेष और कटुता उत्पन्न होती हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने व्यक्तिगत विकास और समाज की भलाई की बजाय दूसरों को नुकसान पहुँचाने के विचारों में उलझ जाता है। दिनकर इसे इस रूप में वर्णित करते हैं कि यह व्यक्ति को "चलती-फिरती जहर की गठरी" बना देती है, जो चारों ओर नकारात्मकता फैलाती है।

5. प्रश्न: दिनकर के अनुसार ईर्ष्या से बचने का सबसे पहला उपाय क्या है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या से बचने का सबसे पहला कदम मानसिक अनुशासन अपनाना है। इसका अर्थ है अपने विचारों और भावनाओं को नियंत्रित करना, फालतू तुलना और दूसरों की उपलब्धियों पर निरंतर ध्यान देने की आदत छोड़ना। व्यक्ति को यह पहचानना चाहिए कि जिस कमी के कारण वह ईर्ष्यालु महसूस कर रहा है, उसे पूरा करने का रचनात्मक और सकारात्मक तरीका क्या हो सकता है। जैसे ही व्यक्ति यह समझता है कि ईर्ष्या केवल उसके मानसिक कष्ट को बढ़ा रही है, वह इसे कम करने और अपने गुणों और विकास पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम हो जाता है।

6. प्रश्न: निबंध में दिनकर ने निंदा करने वालों के व्यवहार का क्या विश्लेषण किया है?

उत्तर:दिनकर ने निंदा करने वालों के व्यवहार का विश्लेषण करते हुए बताया कि ये लोग अक्सर असंतुष्ट और आत्मकेंद्रित होते हैं। उनका उद्देश्य दूसरों की उपलब्धियों के माध्यम से अपना अहंकार संतुष्ट करना होता है। ऐसे लोग अपने व्यक्तिगत विकास और गुणों पर ध्यान नहीं देते, बल्कि दूसरों की आलोचना में समय और ऊर्जा व्यर्थ कर देते हैं। दिनकर ने उदाहरण देकर स्पष्ट किया कि इस कारण ये लोग अपने जीवन में पीछे रह जाते हैं और अपने जीवन के वास्तविक महत्व को खो देते हैं। उनकी निंदा दूसरों को कम नहीं करती, बल्कि केवल उनके अपने मन और चरित्र को प्रदूषित करती है।

7. प्रश्न: ईर्ष्या और चिंता में क्या अंतर बताया गया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, चिंता और ईर्ष्या दोनों ही व्यक्ति के लिए हानिकारक हैं, लेकिन ईर्ष्या अधिक घातक है। चिंता केवल मानसिक तनाव और असंतोष उत्पन्न करती है, जबकि ईर्ष्या न केवल मानसिक पीड़ा देती है बल्कि व्यक्ति के चरित्र और गुणों को भी प्रभावित करती है। ईर्ष्या व्यक्ति के आनंद और संतोष को छीन लेती है, उसकी दृष्टि को संकीर्ण कर देती है और दूसरों की सफलता को देखकर दुःख उत्पन्न करती है। यानी, चिंता केवल मानसिक कष्ट है, जबकि ईर्ष्या व्यक्ति के अंदर गहराई तक हानिकारक प्रभाव डालती है।

8. प्रश्न: दिनकर के अनुसार ईर्ष्या का लाभकारी पक्ष क्या हो सकता है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, यदि सही दृष्टिकोण अपनाया जाए, तो ईर्ष्या का एक सकारात्मक पक्ष भी हो सकता है। जब व्यक्ति अपने प्रतिद्वंद्वियों की सफलताओं और योग्यताओं को देखकर खुद को उनके स्तर तक पहुँचाने का प्रयास करता है, तो यह उसके लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकती है। इतिहास में रसेल, नेपोलियन, सीजर और सिकंदर जैसे महान व्यक्तियों ने अपने समकालीन प्रतिद्वंद्वियों से प्रेरणा लेकर अपने कार्यों में सुधार और उन्नति की। ईर्ष्या तब लाभकारी होती है जब व्यक्ति समझता है कि दूसरों के पास जो है, वह उसके लिए सीखने और विकास का अवसर प्रदान कर सकता है, न कि केवल जलन का कारण बने।

9. प्रश्न: पाठ में एकांत का महत्व कैसे बताया गया है?

उत्तर:दिनकर नीत्से के दृष्टिकोण का उद्धरण देते हुए बताते हैं कि महान कार्य और रचनात्मकता अक्सर एकांत में उत्पन्न होती है, जहाँ ईर्ष्या और निंदा करने वालों की “बाज़ार की मक्खियाँ” नहीं भिनभिनातीं। एकांत व्यक्ति को अपने कार्य, गुणों और सृजनात्मक प्रयासों पर पूरा ध्यान केंद्रित करने का अवसर देता है। यह बाहरी दबाव, नकारात्मकता और आलोचना से मुक्त होने का स्थान है। महान मूल्य और उपलब्धियाँ आम तौर पर शोहरत और समाज की प्रशंसा से परे निर्मित होती हैं, इसलिए एकांत में काम करना व्यक्ति की उन्नति और मानसिक शांति के लिए अत्यंत आवश्यक है।

10. प्रश्न: निबंध में दिनकर ने ईर्ष्या को व्यक्ति के आनंद के लिए हानिकारक कैसे बताया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या व्यक्ति के मन और इंद्रियों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति के लिए सूरज की रोशनी मद्धिम लगती है, पक्षियों के गीत और फूल उसकी दृष्टि में आकर्षक नहीं रह जाते। इसका तात्पर्य यह है कि ईर्ष्या उसकी अनुभव-शक्ति और संवेदनशीलता को भी प्रभावित करती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति केवल दूसरों की सफलता से दुःखी नहीं होता, बल्कि अपने जीवन में भी आनंद और सुंदरता का अनुभव नहीं कर पाता। इसी कारण, ईर्ष्या व्यक्ति के आनंद और मानसिक संतोष के लिए सबसे हानिकारक भावनाओं में गिनी जाती है।


11. प्रश्न: ईर्ष्या और अपने गुणों के विकास के बीच संबंध कैसे समझाया गया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या व्यक्ति को अपने गुणों और क्षमताओं के विकास से दूर कर देती है। जब कोई व्यक्ति लगातार दूसरों की तुलना में अपने आप को मापता है और उनकी उपलब्धियों से जलता है, तो वह अपने अंदर मौजूद गुणों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता। उसका समय और ऊर्जा दूसरों की निंदा और तुलना में खर्च हो जाती है। दिनकर स्पष्ट करते हैं कि वास्तविक उन्नति केवल अपने गुणों और क्षमताओं को बढ़ाने, अपने चरित्र को सुधारने और स्वयं के विकास पर ध्यान देने से संभव है, न कि दूसरों की आलोचना या ईर्ष्या करने से।

12. प्रश्न: ईर्ष्या के कारण व्यक्ति का चरित्र कैसे प्रभावित होता है?

उत्तर:ईर्ष्या व्यक्ति के चरित्र पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डालती है। दिनकर बताते हैं कि ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की सफलता देखकर दुखी होता है, उनकी निंदा करता है और कभी-कभी उन्हें हानि पहुँचाने के विचार भी करता है। उसके हृदय में घृणा और द्वेष घर कर लेते हैं। इस प्रकार उसके अंदर मौजूद नैतिक और सद्गुण क्षीण पड़ जाते हैं और उसका व्यक्तित्व विकृत हो जाता है। ईर्ष्या केवल मानसिक पीड़ा नहीं देती, बल्कि व्यक्ति के चरित्र में भी दोष उत्पन्न करती है।

13. प्रश्न: निबंध में ईर्ष्या की तुलना जहर से क्यों की गई है?

उत्तर:दिनकर ईर्ष्या की तुलना "जहर की चलती-फिरती गठरी" से इसलिए करते हैं क्योंकि यह व्यक्ति और उसके आसपास के वातावरण को दूषित कर देती है। जैसे जहर शरीर को नुकसान पहुँचाता है, वैसे ही ईर्ष्या व्यक्ति के मन, सोच और आचरण को प्रभावित और भ्रष्ट करती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति न केवल स्वयं के जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि उसके आस-पास के लोगों और सामाजिक वातावरण पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ता है। यह तुलना स्पष्ट रूप से बताती है कि ईर्ष्या केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक रूप से भी हानिकारक है।

14. प्रश्न: दिनकर के अनुसार निंदा करने का वास्तविक उद्देश्य क्या होता है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, निंदा करने वाले लोग मुख्यतः अपने अहंकार को बढ़ाने के उद्देश्य से दूसरों की आलोचना करते हैं। उनका मकसद होता है कि दूसरों की प्रतिष्ठा को कम करके स्वयं को श्रेष्ठ दिखाया जा सके। वे अपनी असंतुष्टि और कमियों को छिपाने के लिए दूसरों की खामियाँ उजागर करते हैं। दिनकर स्पष्ट करते हैं कि निंदा करने से दूसरों को वास्तविक हानि नहीं होती; बल्कि यह केवल निंदा करने वाले के मन और चरित्र को ही प्रभावित और हानिकारक बनाती है।

15. प्रश्न: ईर्ष्या और चिंता में किसे अधिक घातक बताया गया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या चिंता से कहीं अधिक हानिकारक है। जहां चिंता केवल मानसिक कष्ट और अस्थायी दुख उत्पन्न करती है, वहीं ईर्ष्या व्यक्ति के आनंद, चरित्र और गुणों को भी प्रभावित और नष्ट कर देती है। चिंता केवल मन को अस्थायी रूप से व्यथित करती है, जबकि ईर्ष्या व्यक्ति के जीवन के सभी पहलुओं—मानसिक, सामाजिक और नैतिक—पर दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव डालती है। इसलिए, ईर्ष्या को व्यक्ति के लिए सबसे घातक मानसिक दोष माना गया है।

16. प्रश्न: ईर्ष्या से बचने के उपाय क्या बताए गए हैं?

उत्तर:दिनकर ईर्ष्या से बचने के लिए दो प्रमुख उपाय सुझाते हैं:

  1. एकांत का अभ्यास: नीत्से के अनुसार, महान कार्य और रचनात्मकता केवल एकांत में ही संभव हैं, जहाँ निंदा और ईर्ष्या करने वाले लोगों की “बाज़ार की मक्खियाँ” नहीं भिनभिनातीं। एकांत व्यक्ति को अपने कार्य और सृजनात्मक प्रयासों पर पूरा ध्यान केंद्रित करने का अवसर देता है।

  2. मानसिक अनुशासन: व्यक्ति को फालतू तुलना और नकारात्मक विचारों से दूर रहना चाहिए। उसे यह पहचानना चाहिए कि जो चीज़ उसके पास नहीं है, उसे पाने का रचनात्मक और सकारात्मक तरीका क्या हो सकता है।

इन दोनों उपायों को अपनाकर व्यक्ति अपनी ईर्ष्या को कम कर सकता है और अपने विकास, गुणों और आनंद पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।

17. प्रश्न: पाठ में प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में ईर्ष्या को कैसे सकारात्मक रूप दिया गया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या सकारात्मक रूप तब ले सकती है जब व्यक्ति अपने प्रतिद्वंद्वियों की सफलताओं को देखकर स्वयं को उनके स्तर तक पहुँचाने का प्रयास करे। यह तभी संभव है जब वह समझे कि दूसरों के पास जो है, वह उसके लिए सीखने और प्रेरणा लेने का अवसर है, न कि केवल जलन का कारण। इतिहास में महान नेता और विचारक भी अपने समकालीनों और पूर्ववर्तियों से प्रेरणा लेकर अपने कार्यों में उत्कृष्टता प्राप्त कर पाए।

18. प्रश्न: निबंध में दिनकर ने निंदा करने वालों और निंदा का शिकार होने वालों का क्या अंतर बताया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, निंदा करने वाले लोग अपने अहंकार और असंतोष को बढ़ाने के उद्देश्य से दूसरों की आलोचना करते हैं। वहीं, निंदा का शिकार होने वाला व्यक्ति यदि समझदार और निर्मल हृदय का हो, तो वह ऐसी आलोचनाओं को महत्व नहीं देता। महान और व्यापक हृदय वाले लोग मानते हैं कि छोटे और ईर्ष्यालु लोगों की बातें उनकी मानसिक शांति को प्रभावित नहीं कर सकतीं। इसके विपरीत, संकीर्ण हृदय वाले लोग दूसरों की निंदा को सत्य मान लेते हैं और उसे अपने जीवन पर असर डालने देते हैं।

19. प्रश्न: ईर्ष्या और आनंद के बीच संबंध को कैसे समझाया गया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या व्यक्ति के आनंद पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। जब हृदय में ईर्ष्या घर करती है, तो व्यक्ति अपने जीवन की सुंदरता और साधारण सुखों का अनुभव नहीं कर पाता। सूरज की रोशनी, पक्षियों के गीत और फूल—जो सामान्यतः आनंद का स्रोत हैं—उसके लिए फीके और महत्वहीन हो जाते हैं। ईर्ष्या न केवल उसकी अनुभूति शक्ति को प्रभावित करती है, बल्कि मानसिक संतुलन और जीवन में सच्चे सुख की अनुभूति को भी बाधित करती है।

20. प्रश्न: निबंध में ईर्ष्या और चरित्र के विकास का संबंध कैसे बताया गया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या व्यक्ति के चरित्रिक विकास में सबसे बड़ी बाधा है। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपना समय और ऊर्जा दूसरों की आलोचना और जलन में व्यर्थ खर्च करता है, बजाय इसके कि वह अपने गुणों और क्षमताओं को विकसित करे। इससे उसके नैतिक और मानसिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वास्तविक उन्नति केवल अपने गुणों और चरित्र पर ध्यान देने और उन्हें सुधारने से संभव है, न कि दूसरों की तुलना या निंदा करने से।

21. प्रश्न: दिनकर ने ईर्ष्या को किस प्रकार मानसिक और सामाजिक संकट बताया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, ईर्ष्या व्यक्ति के लिए मानसिक और सामाजिक दोनों तरह के संकट उत्पन्न करती है। मानसिक रूप से यह व्यक्ति को दुखी, असंतुष्ट और चिंताग्रस्त बना देती है। सामाजिक रूप से, ईर्ष्यालु व्यक्ति में दूसरों के प्रति द्वेष और कटुता उत्पन्न होती है। दिनकर इसे "जहर की चलती-फिरती गठरी" के रूप में वर्णित करते हैं, क्योंकि इसका प्रभाव केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह उसके आस-पास के समाज और परिवेश को भी दूषित कर देता है।

22. प्रश्न: पाठ में निंदा और अहंकार के बीच संबंध कैसे दर्शाया गया है?

उत्तर:दिनकर के अनुसार, निंदा और अहंकार आपस में गहरे जुड़े हुए हैं। निंदा करने वाले व्यक्ति अक्सर अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए दूसरों की आलोचना करते हैं। उनका उद्देश्य होता है कि दूसरों की प्रतिष्ठा कम करके स्वयं को श्रेष्ठ दिखाया जा सके। यही कारण है कि निंदा करने वाले का व्यवहार प्रायः अहंकार से प्रेरित होता है और इसका मुख्य लक्ष्य स्वयं को दूसरों से ऊपर दिखाना होता है।

23. प्रश्न: निबंध में “बाज़ार की मक्खियाँ” का क्या अर्थ है?

उत्तर:निबंध में “बाज़ार की मक्खियाँ” उन लोगों और परिस्थितियों का प्रतीक हैं जो नकारात्मकता, ईर्ष्या और निंदा फैलाते हैं। नीत्से के अनुसार, महान कार्य और मूल्य निर्माण केवल उस स्थान पर संभव हैं जहाँ ये “मक्खियाँ” नहीं भिनभिनातीं, यानी एकांत में। यह संकेत करता है कि व्यक्ति को नकारात्मक प्रभावों और आलोचनाओं से दूर रहकर अपने गुणों, रचनात्मकता और विकास पर पूरा ध्यान देना चाहिए।

24. प्रश्न: निबंध में एकांत का महत्व क्यों बताया गया है?

उत्तर:निबंध में एकांत का महत्व इसलिए बताया गया है क्योंकि महान कार्य, सृजनात्मकता और मूल्य निर्माण केवल उस वातावरण में संभव हैं जहाँ ईर्ष्या, निंदा और बाहरी दबाव नहीं होते। एकांत व्यक्ति को अपने विचारों, गुणों और रचनात्मक प्रयासों पर पूर्ण ध्यान केंद्रित करने का अवसर प्रदान करता है। यह मानसिक शांति और आत्मविकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।

25. प्रश्न: ईर्ष्या को कम करने के लिए व्यक्ति को किस प्रकार की मानसिकता अपनानी चाहिए?

उत्तर:ईर्ष्या को कम करने के लिए व्यक्ति को मानसिक अनुशासन अपनाना चाहिए। उसे अपने विचारों और भावनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए और फालतू तुलना तथा नकारात्मक सोच को त्याग देना चाहिए। साथ ही, उसे यह समझना चाहिए कि जो चीज़ उसके पास नहीं है, उसे प्राप्त करने का रचनात्मक और सकारात्मक तरीका क्या हो सकता है। इस मानसिक दृष्टिकोण से ईर्ष्या कम होती है और व्यक्ति अपने विकास, गुणों और आनंद पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।

26. प्रश्न: लेखक ने खुशी और ईर्ष्या का संबंध कैसे बताया है?

उत्तर: लेखक के अनुसार, ईर्ष्या व्यक्ति की खुशी पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। जब हृदय में जलन और द्वेष होता है, तो व्यक्ति साधारण सुखों और जीवन की सुंदरता का अनुभव नहीं कर पाता। सूरज की रोशनी, फूल, पक्षियों के गीत और प्रकृति का आनंद भी उसके लिए फीका और अप्रासंगिक हो जाता है। इसलिए, सच्ची खुशी पाने के लिए व्यक्ति को ईर्ष्या से मुक्त होना आवश्यक है।

27. प्रश्न: ईर्ष्या और मृत्यु की तुलना किस प्रकार की गई है?

उत्तर: लेखक के अनुसार, ईर्ष्या इतनी घातक है कि मृत्यु भी इसके मुकाबले बेहतर मानी जा सकती है। मृत्यु व्यक्ति को शांति देती है, जबकि ईर्ष्या के कारण वह अपने गुणों को भ्रष्ट करके जीवन भर मानसिक और भावनात्मक कष्ट भोगता है। यह न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि समाज और उसके आस-पास के लोगों के लिए भी हानिकारक होती है।

28. प्रश्न: लेखक के अनुसार महान व्यक्तियों के प्रति ईर्ष्या का क्या महत्व है?

उत्तर: लेखक के अनुसार, महान व्यक्तियों के प्रति ईर्ष्या उस समय उत्पन्न होती है जब लोग उनके गुणों, कृतियों और महानता को देखकर जलन महसूस करते हैं। यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, लेकिन इसका सकारात्मक उपयोग तभी संभव है जब व्यक्ति इसे प्रेरणा के रूप में ग्रहण कर अपने आत्म-विकास और गुणों के सुधार के लिए दिशा में लगाए।

29. प्रश्न: ईर्ष्या के परिणाम स्वरूप नकारात्मक व्यवहार कौन-कौन से होते हैं?

उत्तर: ईर्ष्या के कारण व्यक्ति में कई नकारात्मक व्यवहार विकसित होते हैं, जैसे:

  1. दूसरों की निंदा और आलोचना करना।

  2. अपने गुणों और क्षमताओं के विकास की उपेक्षा करना।

  3. कभी-कभी दूसरों को हानि पहुँचाने के विचार रखना।

  4. मानसिक शांति और संतोष खो देना।

  5. जीवन में साधारण आनंद और खुशी का अनुभव नहीं कर पाना।

इन सभी कारणों से ईर्ष्या व्यक्ति और उसके समाज दोनों के लिए हानिकारक साबित होती है।

30. प्रश्न: ईर्ष्या और मानसिक अनुशासन का संबंध क्या है?

उत्तर: ईर्ष्या से बचने का सबसे प्रभावी उपाय मानसिक अनुशासन है। व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को नियंत्रित करना चाहिए और फालतू तुलना या दूसरों की सफलता पर ध्यान न देना चाहिए। इस मानसिक अनुशासन के माध्यम से व्यक्ति अपने समय और ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों, गुणों के विकास और आत्म-विकास की दिशा में लगा सकता है, जिससे ईर्ष्या कम होती है और मानसिक शांति बढ़ती है।

31. प्रश्न: निबंध में ईर्ष्या की उत्पत्ति कहाँ बताई गई है?

उत्तर:निबंध में दिनकर बताते हैं कि ईर्ष्या व्यक्ति के हृदय में उत्पन्न होती है। यह जन्मजात नहीं होती, बल्कि किसी कमी, अभाव या दूसरों की सफलता और उपलब्धियों की तुलना से जन्म लेती है। जो व्यक्ति अपने अभाव को सही ढंग से समझकर उसका रचनात्मक समाधान नहीं ढूंढता, वह ईर्ष्या के प्रभाव में आ जाता है।

32. प्रश्न: ईर्ष्या और आनंद का विरोध कैसे दिखाया गया है?

उत्तर:निबंध में दिनकर बताते हैं कि ईर्ष्या व्यक्ति के हृदय में उत्पन्न होती है। यह जन्मजात नहीं होती, बल्कि किसी कमी, अभाव या दूसरों की सफलता और उपलब्धियों की तुलना से जन्म लेती है। जो व्यक्ति अपने अभाव को सही ढंग से समझकर उसका रचनात्मक समाधान नहीं ढूंढता, वह ईर्ष्या के प्रभाव में आ जाता है।

33. प्रश्न: ईर्ष्या के सामाजिक और व्यक्तिगत दुष्प्रभावों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर:व्यक्तिगत दृष्टि से, ईर्ष्या व्यक्ति के आनंद, मानसिक संतुलन और चरित्र को प्रभावित करती है और उसे असंतुष्ट बना देती है। सामाजिक दृष्टि से, यह निंदा, द्वेष और विवाद उत्पन्न करती है। ईर्ष्या के कारण लोग दूसरों को हानि पहुँचाने के विचार करते हैं और समाज में असमानता, कटुता तथा असंतोष फैलाते हैं। इसलिए ईर्ष्या न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामाजिक स्तर पर भी हानिकारक साबित होती है।

34. प्रश्न: लेखक ने निंदा और उपकार के संबंध में क्या बताया?

उत्तर: लेखक के अनुसार, जिन लोगों ने दूसरों के प्रति उपकार और उदारता दिखाई होती है, उनके पीछे निंदा करने वाले अक्सर उन्हें दोषारोपण और आलोचना का शिकार बनाते हैं। उपकार और भलमनसाहत का उत्तर अक्सर नकारात्मकता के रूप में मिलता है। इसका कारण यह है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए दूसरों को नीचा दिखाना चाहता है, चाहे उनके लिए किए गए उपकार का कोई महत्व न हो।

35. प्रश्न: निबंध में अनुभव और विचारों के आधार पर जीवन की शिक्षा क्या दी गई है?

उत्तर: निबंध से हमें यह जीवन-शिक्षा मिलती है कि:

  1. ईर्ष्या और निंदा से दूर रहना चाहिए।

  2. अपने गुणों और क्षमताओं का विकास करना आवश्यक है।

  3. मानसिक अनुशासन को अपनाना चाहिए।

  4. दूसरों की सफलता से प्रेरणा लेनी चाहिए, न कि ईर्ष्या।

  5. जीवन में संतुलन बनाए रखना चाहिए।

इन सिद्धांतों का पालन करके व्यक्ति न केवल एक खुशहाल और संतुलित जीवन जी सकता है, बल्कि समाज में भी सकारात्मक और रचनात्मक योगदान कर सकता है।


Answer by Mrinmoee