Chapter 12
विक्रमशिला
विक्रमशिला विश्वविद्यालय पर आधारित ४० लंबे प्रश्न एवं उत्तर
प्रश्न 1: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का इतिहास क्या है?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय प्राचीन भारत की बौद्ध शिक्षा परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण केन्द्र था। इसकी स्थापना आठवीं शताब्दी के मध्य पालवंश के प्रतापी राजा धर्मपाल द्वारा की गई थी। इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल शास्त्रों का अध्ययन नहीं, बल्कि विद्यार्थियों का समग्र बौद्धिक, आध्यात्मिक और नैतिक विकास करना था। विक्रमशिला अपने समय में शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में नालंदा विश्वविद्यालय से भी अधिक उन्नत और व्यापक माना जाता था। यहाँ खगोल विज्ञान, चिकित्सा विद्या, तंत्र विद्या, न्याय, व्याकरण, योग और बौद्ध दर्शन जैसे विविध विषयों की उच्च शिक्षा दी जाती थी। इसका प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं था; यहाँ के आचार्यों और विद्यार्थियों ने तिब्बत और पूर्वी एशिया के अन्य देशों में बौद्ध धर्म और ज्ञान का प्रचार किया। इसलिए विक्रमशिला न केवल एक शिक्षा केन्द्र था, बल्कि भारत की बौद्धिक शक्ति और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक भी था।
प्रश्न 2: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक महत्ता क्या थी?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक महत्व इसकी शिक्षा और बौद्धिक परंपरा के वैश्विक प्रभाव में झलकता है। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में यह पूर्वी एशिया के सबसे प्रमुख शिक्षा केन्द्रों में शामिल था। यहाँ की शिक्षा प्रणाली न केवल नालंदा विश्वविद्यालय की तुलना में उन्नत मानी जाती थी, बल्कि छात्रों को जीवनोपयोगी और व्यावहारिक कौशल, तंत्र विद्या, योग साधना और बौद्ध सिद्धांतों का गहन प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाता था। विक्रमशिला ने केवल शास्त्रीय ज्ञान का प्रचार नहीं किया, बल्कि विद्यार्थियों में नैतिकता, ध्यान और चरित्र निर्माण की दिशा में भी योगदान दिया। इसके आचार्यों और विद्यार्थियों ने तिब्बत, चीन और अन्य देशों में बौद्ध धर्म और दर्शन का प्रचार किया, जिससे भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हुई। इस प्रकार विक्रमशिला विश्वविद्यालय न केवल शिक्षा का केंद्र था, बल्कि भारत के ज्ञान, संस्कृति और बौद्ध परंपरा की गौरवशाली पहचान भी बन गया।
प्रश्न 3: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना किसने और क्यों की?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना आठवीं शताब्दी के मध्य पालवंश के प्रतापी राजा धर्मपाल ने की थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में बौद्ध धर्म और दर्शन के प्रचार-प्रसार को सुनिश्चित करना था। धर्मपाल ने इस शिक्षा केन्द्र को विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त कराने के लिए स्थापित किया, ताकि भारतीय बौद्धिक और सांस्कृतिक परंपराएँ दूर-दूर तक फैल सकें। विश्वविद्यालय का संगठन और संरचना इस प्रकार बनाई गई थी कि यहाँ के आचार्य न केवल विद्वानों का मार्गदर्शन कर सकें, बल्कि उनका आचार और शील भी विद्यार्थियों के लिए आदर्श बने। विक्रमशिला की प्रतिष्ठा केवल भव्य इमारतों या पुस्तकालय तक सीमित नहीं थी; इसके आचार्यों की अनुशासनपूर्ण शिक्षा पद्धति और विद्वानों की नैतिकता ने इसे एक उत्कृष्ट शिक्षा केन्द्र के रूप में अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई। इस प्रकार, विक्रमशिला का निर्माण शिक्षा, अनुसंधान और संस्कृति के क्षेत्र में भारत की गौरवशाली पहचान का प्रतीक बन गया।
प्रश्न 4: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में कौन-कौन से प्रमुख आचार्य हुए और उनका योगदान क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय के शैक्षणिक गौरव में अनेक प्रमुख आचार्यों का योगदान रहा। इनमें सबसे महत्वपूर्ण नाम है हरिभद्र (जिन्हें कभी-कभी शांतिभद्र भी कहा जाता है), जो विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति थे। हरिभद्र नालंदा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध आचार्य शांतिरक्षित के शिष्य थे, और उन्होंने विक्रमशिला में उच्चस्तरीय शिक्षा और शोध कार्य की परंपरा को स्थापित किया। उनके मार्गदर्शन में विद्यार्थियों ने न केवल बौद्ध दर्शन और तंत्र विद्या का अध्ययन किया, बल्कि योग, न्याय और अन्य शास्त्रों में भी दक्षता प्राप्त की।
इसके अतिरिक्त अतिश दीपंकर जैसे विद्वानों ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया और लामा संप्रदाय की स्थापना की। उनकी उपस्थिति और कार्यों ने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी विक्रमशिला विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा बढ़ाई। इन आचार्यों की शिक्षण पद्धति, अनुशासन और विद्वता ने विश्वविद्यालय को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक आदर्श शिक्षा केन्द्र के रूप में स्थापित किया। इस प्रकार विक्रमशिला के प्रमुख आचार्य न केवल शिक्षकों के रूप में, बल्कि ज्ञान और संस्कृति के वैश्विक दूत के रूप में भी कार्य करते थे।
प्रश्न 5: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की संरचना और प्रांगण की विशेषताएँ क्या थीं?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की संरचना अत्यंत सुव्यवस्थित और अनुशासित थी। इसके प्रांगण में कुल छह प्रमुख महाविद्यालय स्थित थे, जिनमें प्रत्येक महाविद्यालय के लिए द्वारपण्डित नियुक्त थे। द्वारपण्डित विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की मौखिक परीक्षा लेते थे, और केवल वही छात्र प्रवेश पा सकते थे, जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे। विद्यार्थियों का आचार्य के साथ संबंध पुत्रवत माना जाता था, ताकि उन्हें बौद्ध सिद्धांतों और उच्च नैतिक शिक्षा के मार्ग पर विकसित किया जा सके।
विक्रमशिला का प्रांगण अध्ययन, शोध और ध्यान के लिए अत्यंत अनुकूल था। यहाँ एक समृद्ध पुस्तकालय था, जिसमें तंत्र विद्या, तर्क विद्या, प्रारंभिक दर्शन और बौद्ध दर्शन से संबंधित ग्रंथों का विशाल संग्रह मौजूद था। इसके अतिरिक्त प्रयोगशालाएँ, भिक्षु वर्ग और श्रावक वर्ग भी उपलब्ध थे, जहाँ छात्र अध्ययन और ध्यान की परंपरा का पालन करते थे। विश्वविद्यालय का यह वातावरण विद्या, अनुशासन और आध्यात्मिक चेतना से परिपूर्ण था, जो विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास में सहायक था।
प्रश्न 6: विक्रमशिला विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की विशेषताएँ क्या थीं?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पुस्तकालय अपने समय का एक अत्यंत समृद्ध और विशिष्ट केंद्र था। यहाँ तंत्रविद्या, तर्कविद्या, प्रारंभिक दर्शन, बौद्ध दर्शन, व्याकरण, न्याय, खगोल विज्ञान और अन्य महत्वपूर्ण विद्याओं के ग्रंथों का विशाल संग्रह उपलब्ध था। पुस्तकालय में केवल अध्ययन ही नहीं, बल्कि शोध और पाण्डुलिपियों की तैयारी की सुविधा भी थी। आचार्य और शोधार्थियों दोनों को ग्रंथों की प्रति तैयार करने की अनुमति थी, जिससे ज्ञान का संरक्षण और प्रचार दोनों सुनिश्चित होता था।
इस पुस्तकालय की एक विशिष्ट उपलब्धि यह है कि प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टशाहस्रिका प्रज्ञापारमिता’ की पाण्डुलिपि यहीं तैयार की गई थी, जो बाद में ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन में सुरक्षित की गई। इस प्रकार, विक्रमशिला का पुस्तकालय न केवल विद्या के अध्ययन का केन्द्र था, बल्कि ज्ञान के संरक्षण और भविष्य के शोधार्थियों के लिए प्रेरणा का भी स्रोत था। यहाँ की व्यवस्थाओं ने विश्वविद्यालय की वैश्विक प्रतिष्ठा को और मजबूती प्रदान की।
प्रश्न 7: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम के प्रमुख अंग कौन-कौन से थे?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम अत्यंत व्यापक और समग्र था, जिसमें विविध विद्या-शाखाओं को शामिल किया गया था। यहां तंत्र विद्या और योग के माध्यम से मानसिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण दिया जाता था। न्याय और व्याकरण के अध्ययन से तार्किक सोच और भाषा कौशल का विकास होता था। काव्य और शब्द-विद्या विद्यार्थियों की सृजनात्मक प्रतिभा को निखारती थी।
इसके अतिरिक्त खगोल विज्ञान, चिकित्सा विद्या और शिल्प विद्या भी पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं, जिससे विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान में भी दक्ष बनते थे। सांख्य और वैशेषिक दर्शन के अध्ययन से उनके विचारों में गहनता आती थी, जबकि विज्ञान, जादू और चमत्कार-विद्या से प्राकृतिक और अद्भुत घटनाओं की समझ विकसित होती थी। कुल मिलाकर, विक्रमशिला का पाठ्यक्रम न केवल बौद्धिक विकास पर बल देता था, बल्कि यह विद्यार्थियों को पूर्ण और परिपूर्ण मानव बनाने की दिशा में मार्गदर्शन करता था। इस तरह विश्वविद्यालय का शिक्षण उद्देश्य जीवन के हर क्षेत्र में दक्ष और सुसंस्कृत व्यक्ति तैयार करना था।
प्रश्न 8: विश्वविद्यालय में शिक्षा का माध्यम कौन-सा था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा का मुख्य माध्यम संस्कृत भाषा थी। यहाँ के सभी ग्रंथ, पाठ्यक्रम और शिक्षण क्रियाएँ संस्कृत में संचालित होती थीं। यह भाषा न केवल अध्ययन का उपकरण थी, बल्कि विद्यार्थियों के बौद्धिक, तर्कसंगत और भाषिक विकास का भी प्रमुख साधन थी। संस्कृत के माध्यम से विद्यार्थी गहन और जटिल विषयों को समझने में सक्षम होते थे, जैसे तंत्र विद्या, न्याय, व्याकरण, दर्शन, खगोल विज्ञान और चिकित्सा विद्या।
संस्कृत भाषा की यह प्रणाली विद्यार्थियों को देश-विदेश में अपनी शिक्षा और ज्ञान का प्रचार करने की क्षमता देती थी। इसके अलावा, भाषा के माध्यम से शास्त्रों के मूल अर्थ और बौद्धिक परंपरा का संरक्षण भी सुनिश्चित होता था। इस प्रकार, संस्कृत ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा को न केवल प्रभावी बनाया, बल्कि इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करने में भी मदद की।
प्रश्न 9: विद्यार्थियों के प्रवेश और प्रशिक्षण की प्रक्रिया क्या थी?
उत्तर:विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों का प्रवेश अत्यंत अनुशासित और चयनात्मक था। किसी भी छात्र को विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए द्वारपण्डितों द्वारा आयोजित मौखिक परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक था। द्वारपण्डित विद्यार्थी की योग्यता, ज्ञान की गहराई और तार्किक क्षमता का मूल्यांकन करते थे।
प्रवेश प्राप्त करने के बाद नवागंतुक विद्यार्थियों को प्रारंभ में ‘भिक्षु वर्ग’ में रखा जाता था, जहाँ वे नियमित रूप से ध्यान, अनुशासन और अध्ययन की आदत विकसित करते थे। इसके बाद आचार्य उन्हें पुत्रवत मानकर मार्गदर्शन करते थे और बौद्ध सिद्धांतों, तंत्र विद्या, योग तथा अन्य विषयों में गहन प्रशिक्षण प्रदान करते थे। यह प्रशिक्षण प्रक्रिया केवल ज्ञान प्रदान करने तक सीमित नहीं थी, बल्कि विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण, नैतिकता और मानसिक स्थिरता पर भी केंद्रित थी। इस तरह, विक्रमशिला का प्रशिक्षण विधि और अनुशासन दोनों में उत्कृष्ट था और विद्यार्थियों को जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त करने हेतु तैयार करता था।
प्रश्न 10: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में कितने छात्र और अध्यापक थे?
उत्तर: दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में विक्रमशिला विश्वविद्यालय अपने समय का एक विशाल और उत्कृष्ट शिक्षा केन्द्र था। उस समय यहाँ लगभग दस हजार छात्र अध्ययनरत थे, जो देश-विदेश से यहाँ आते थे। इनके मार्गदर्शन और शिक्षण के लिए लगभग एक हजार आचार्य और शिक्षक नियुक्त थे। इस विशाल संख्या और संगठन ने विश्वविद्यालय को न केवल भौतिक रूप से भव्य बनाया, बल्कि शिक्षा, अनुशासन और शोध की दृष्टि से इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया।
छात्र और आचार्य दोनों ही यहाँ केवल ज्ञान अर्जन के लिए नहीं थे, बल्कि बौद्धिक और नैतिक प्रशिक्षण के माध्यम से पूर्ण मानव बनने की प्रक्रिया में लगे हुए थे। आचार्यों की शिक्षा पद्धति इतनी प्रभावशाली थी कि यहाँ के विद्यार्थी देश-विदेश में सम्मानित और आदर्श व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते थे। इस प्रकार, छात्रों और शिक्षकों की संख्या और उनकी गुणवत्ता ने विक्रमशिला को सम्पूर्ण पूर्वी एशिया में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बना दिया।
प्रश्न 11: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका दायरा पूरी पूर्वी एशिया तक फैला हुआ था। विश्वविद्यालय के आचार्य और विद्यार्थी तिब्बत, चीन, जापान और अन्य देशों में बौद्ध धर्म, दर्शन और विज्ञान का प्रचार-प्रसार करते थे। उदाहरण के लिए, अतिश दीपंकर ने तिब्बत में जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया और वहाँ लामा संप्रदाय की स्थापना की, जिससे वहां की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं पर गहरा प्रभाव पड़ा।
इसके अलावा, विक्रमशिला के विद्वानों की शिक्षण पद्धति और शोध कार्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्वानों द्वारा मान्यता प्राप्त थे। उन्होंने न केवल बौद्ध दर्शन का प्रचार किया, बल्कि खगोल विज्ञान, चिकित्सा, तंत्र विद्या और अन्य ज्ञान-क्षेत्रों में भी अपना योगदान दिया। इस प्रकार, विक्रमशिला विश्वविद्यालय ने पूरे एशिया में भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा को स्थापित किया और इसे एक वैश्विक शिक्षा केन्द्र के रूप में सम्मान दिलाया।
प्रश्न 12: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पतन कैसे हुआ?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पतन तेरहवीं शताब्दी की शुरुआत में हुआ। उस समय तुर्क आक्रमणकारियों ने इसे विध्वंस कर दिया। विश्वविद्यालय को भ्रमवश किले के रूप में समझकर पूरी तरह तबाह कर दिया गया। इस विध्वंस के कारण न केवल भव्य भवन और पुस्तकालय नष्ट हुए, बल्कि वहाँ अध्ययनरत हजारों छात्रों और आचार्यों का जीवन और उनका शैक्षणिक कार्य भी प्रभावित हुआ।
विक्रमशिला के पतन का विवरण ‘तबक़ात-ए-नासिरी’ जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों में मौजूद है। इसके अतिरिक्त तिब्बती लामा धर्मस्वामी ने इस विध्वंस का अत्यंत मार्मिक और जीवंत वर्णन किया है। विश्वविद्यालय के पतन ने भारतीय शिक्षा, बौद्ध दर्शन और अनुसंधान की परंपरा पर गहरा असर डाला और यह एक गौरवशाली शिक्षा केन्द्र अचानक ही अस्थायी रूप से लुप्त हो गया। इस घटना ने भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के महत्व को भी उजागर किया।
प्रश्न 13: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में कौन-कौन सी पारमिताएँ पढ़ाई जाती थीं?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए विशेष रूप से दस पारमिताओं का अध्ययन कराया जाता था। इन पारमिताओं में प्रमुख हैं: दान, शील, धैर्य, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञापारमिता। इसके अलावा उपाय कौशल, प्राणिधान, बल और ज्ञान जैसी अन्य पारमिताएँ भी शिक्षा का हिस्सा थीं।
इन पारमिताओं का उद्देश्य केवल बौद्धिक शिक्षा तक सीमित नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास करना भी था। प्रत्येक पारमिता विद्यार्थियों को जीवन के विभिन्न पहलुओं में निपुण बनाने और उन्हें परिपूर्ण मानव के रूप में ढालने में सहायक थी। इन दस पारमिताओं में पारंगत होना विक्रमशिला विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा का चरम मानक माना जाता था, क्योंकि यह विद्या, साधना और चरित्र के संयोजन से प्राप्त होती थी। इस प्रकार, पारमिताएँ विद्यार्थियों के बौद्धिक, आध्यात्मिक और नैतिक प्रशिक्षण की रीढ़ थी।
प्रश्न 14: विश्वविद्यालय की वर्तमान स्थिति क्या है?
उत्तर: वर्तमान समय में विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पुरातात्विक महत्व पुनः उजागर हुआ है। सरकार और पुरातात्विक विभाग की सक्रियताओं के माध्यम से विश्वविद्यालय की प्राचीन इमारतों, चैत्य और प्रतिमाओं की खोज की जा चुकी है। विश्वविद्यालय के प्रधान चैत्य की संरचना 50 फीट ऊँची और 73 फीट चौड़ी है, जो इसकी भव्यता और वास्तुकला की महत्ता को दर्शाती है।
साथ ही, यहाँ भगवान बुद्ध की भूमि स्पर्श मुद्रा में प्रतिमा और पद्मासन पर बैठे अवलोकितेश्वर की कांस्य प्रतिमा भी प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त पद्मपाणि और मैत्रेय की प्रतिमाओं सहित अन्य महत्वपूण् वस्तुएँ भी खोजी गई हैं। इन खोजों ने विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक गौरव और इसकी शिक्षा-परंपरा की पुनर्यथास्थिति की संभावनाएँ बढ़ा दी हैं। आज विक्रमशिला न केवल ऐतिहासिक स्थल के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि शोध, अध्ययन और बौद्धिक शिक्षा के क्षेत्र में इसकी संभावनाएँ भी जीवंत हैं।
प्रश्न 15: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा की विशेषता क्या थी?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा की सबसे प्रमुख विशेषता इसका समग्र और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली प्रशिक्षण था। यहाँ शिक्षा केवल शास्त्रों और दर्शन तक सीमित नहीं थी, बल्कि तंत्र विद्या, विज्ञान, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, शिल्प-विद्या, जादू एवं चमत्कार-विद्या सहित अनेक व्यवहारिक और तकनीकी विषयों का अध्ययन भी किया जाता था।
विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को अनुशासन, ध्यान और शोधकार्य के प्रति पूर्ण समर्पण के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि जीवनोपयोगी कौशल और बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास सुनिश्चित करना था। प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जाता था और उसे पुत्रवत मानकर आचार्य द्वारा गहन शिक्षा प्रदान की जाती थी। इस प्रकार, विक्रमशिला की शिक्षा प्रणाली व्यापक, व्यावहारिक, और सम्पूर्ण मानव निर्माण की दिशा में केंद्रित थी, जो इसे अन्य समकालीन शिक्षा केंद्रों से अलग और विशिष्ट बनाती थी।
प्रश्न 16: विश्वविद्यालय का नाम विक्रमशिला कैसे पड़ा?
उत्तर:विक्रमशिला विश्वविद्यालय के नाम के पीछे एक रोचक किंवदंती है। कहा जाता है कि इस स्थान पर पहले एक यक्ष रहता था, जिसका नाम विक्रम था। इस यक्ष को हराकर इस क्षेत्र में विहार का निर्माण किया गया। इसके बाद इस विश्वविद्यालय को “विक्रमशिला” नाम दिया गया, जिसका अर्थ है “साहस और शील का स्थान”।
इसके अतिरिक्त, विश्वविद्यालय के आचार्यों और विद्वानों के विक्रमपूर्ण आचरण और उनके अनुशासित, दृढ़ एवं निष्ठावान व्यवहार ने इस नाम को और अधिक प्रतिष्ठित बनाया। प्रांगण में विद्वानों की शिक्षा, शोध और नैतिक उत्कृष्टता ने इसे शिक्षा और बौद्धिक परंपरा का एक प्रेरक केन्द्र बना दिया। इस तरह, नाम “विक्रमशिला” न केवल ऐतिहासिक घटना का प्रतीक है, बल्कि यह विश्वविद्यालय की शिक्षा, शील और साहसपूर्ण परंपरा का भी प्रतिनिधित्व करता है।
प्रश्न 17: विश्वविद्यालय में द्वारपण्डितों की भूमिका क्या थी?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में द्वारपण्डितों का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित था। ये विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर नियुक्त रहते थे और प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की योग्यता का मूल्यांकन करते थे। द्वारपण्डित छात्रों की मौखिक परीक्षा लेकर यह सुनिश्चित करते थे कि केवल योग्य और योग्यतम विद्यार्थी ही विश्वविद्यालय में प्रवेश पाएं।
इसके अलावा, द्वारपण्डित विभिन्न विद्या शाखाओं जैसे तंत्र, योग, न्याय, व्याकरण, काव्य आदि में निपुण होते थे। वे केवल परीक्षा लेने तक सीमित नहीं रहते थे, बल्कि विद्यार्थियों के मार्गदर्शक भी होते थे। छात्रों को उनके अध्ययन, शोध और अनुशासन में निर्देशित करना, उन्हें बौद्ध सिद्धांतों और अन्य विषयों में पारंगत बनाना, और उच्च शिक्षा के मानकों पर खरा उतरने के लिए तैयार करना, यह सभी कार्य द्वारपण्डितों द्वारा किया जाता था। इस प्रकार, द्वारपण्डित विश्वविद्यालय की गुणवत्ता और अनुशासन बनाए रखने में एक केंद्रीय भूमिका निभाते थे।
प्रश्न 18: विश्वविद्यालय के छात्र कैसे प्रशिक्षण प्राप्त करते थे?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में छात्रों का प्रशिक्षण एक व्यवस्थित और चरणबद्ध प्रक्रिया के माध्यम से होता था। नवागंतुक छात्रों को सबसे पहले ‘भिक्षु वर्ग’ में रखा जाता था। इस अवधि में छात्रों को बौद्ध सिद्धांतों की प्रारंभिक जानकारी दी जाती थी और उन्हें अनुशासन, ध्यान, नैतिकता और आत्मसंयम का प्रशिक्षण दिया जाता था।
इसके बाद आचार्य छात्रों के प्रति पुत्रवत व्यवहार करते थे और उन्हें गहन अध्ययन, तंत्र विद्या, योग, न्याय, व्याकरण, विज्ञान और अन्य विद्या शाखाओं में मार्गदर्शन प्रदान करते थे। छात्र नियमित अध्ययन और शोध कार्यों में संलग्न रहते थे, जिससे उनका बौद्धिक विकास और व्यावहारिक दक्षता सुनिश्चित होती थी। इस तरह की शिक्षा प्रणाली न केवल विद्या का प्रसार करती थी, बल्कि विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण और आत्मनिर्भरता को भी सुनिश्चित करती थी।
प्रश्न 19: विक्रमशिला में किस प्रकार की शोध और पाण्डुलिपियाँ तैयार की जाती थीं?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में आचार्य और शोधार्थी दोनों को पाण्डुलिपियों की तैयारी का अधिकार प्राप्त था। इन पाण्डुलिपियों में बौद्ध दर्शन, तंत्र विद्या, तर्क विद्या, न्याय, व्याकरण, खगोल विज्ञान, चिकित्सा विद्या और अन्य ज्ञान-क्षेत्रों के ग्रंथ शामिल होते थे।
पाण्डुलिपियों को तैयार करना केवल लेखन का कार्य नहीं था, बल्कि इसमें गहन अध्ययन, विश्लेषण और संशोधन की प्रक्रिया भी शामिल थी। विद्यार्थियों और आचार्यों के लिए यह एक प्रकार का शोध और ज्ञान संवर्धन का कार्य था। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टशाहस्रिका प्रज्ञापारमिता’ की पाण्डुलिपि विक्रमशिला में ही तैयार की गई थी, जो बाद में ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन में संग्रहित हो गई। इस प्रकार, विश्वविद्यालय न केवल शिक्षा का केन्द्र था, बल्कि ज्ञान सृजन और संरक्षण का भी महत्त्वपूर्ण स्थल था।
प्रश्न 20: विक्रमशिला विश्वविद्यालय के छात्रों को किस प्रकार सम्मान मिलता था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में अध्ययनरत छात्रों को शिक्षा, ज्ञान और नैतिकता में पारंगत होने के कारण विशेष सम्मान प्राप्त होता था। विश्वविद्यालय के नामांकित छात्र देश-विदेश में अपने विद्वानों और आचार्यों की प्रतिष्ठा के कारण मान-सम्मान के अधिकारी बन जाते थे।
राजदरबारों में विश्वविद्यालय के आचार्य और छात्र उच्च स्थान पर देखे जाते थे। वे केवल बौद्धिक ज्ञान के कारण ही नहीं, बल्कि अपने अनुशासन, शील और शोध कार्य की गुणवत्ता के कारण भी विशेष सम्मानित होते थे। इनके प्रति सम्मान स्वतः ही उत्पन्न होता था क्योंकि उनका ज्ञान और कौशल समाज और शासन के लिए उपयोगी माना जाता था। इस प्रकार, विक्रमशिला के छात्रों और आचार्यों का सम्मान उनके विद्वत्व, नैतिकता और अनुशासन से जुड़ा हुआ था, जो उन्हें समाज और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित बनाता था।
प्रश्न 21: विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में विज्ञान की भूमिका क्या थी?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विज्ञान और सृष्टि-ज्ञान को पाठ्यक्रम का एक प्रमुख और अनिवार्य हिस्सा माना गया था। विद्यार्थियों को खगोल विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, तथा अन्य विज्ञानिक विषयों का अध्ययन कराया जाता था। इन विषयों का उद्देश्य केवल सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान करना नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों को व्यावहारिक और जीवनोपयोगी कौशलों में भी दक्ष बनाना था।
सृष्टि और प्रकृति के नियमों की समझ से छात्र तार्किक सोच, प्रयोगात्मक दृष्टिकोण और शोध-कौशल विकसित कर पाते थे। यह उन्हें न केवल विद्वान बनाता था, बल्कि जीवन में समस्याओं का समाधान करने और समाज में योगदान देने में भी सक्षम बनाता था। इस प्रकार, विज्ञान और सृष्टि-ज्ञान विश्वविद्यालय के समग्र शिक्षण प्रणाली का अभिन्न हिस्सा थे, जिन्होंने छात्रों के बौद्धिक और व्यवहारिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 22: विश्वविद्यालय में अध्यापन का समय और कक्षा व्यवस्था कैसे थी?
उत्तर:विक्रमशिला विश्वविद्यालय में कक्षा व्यवस्था और समय-निर्धारण अत्यंत संगठित और अनुशासित था। इसके लिए विशेष आचार्य नियुक्त किए गए थे, जो यह सुनिश्चित करते थे कि प्रत्येक कक्षा निर्धारित समय पर आयोजित हो और उसका उद्देश्य पूर्णतः प्राप्त हो।
प्रत्येक कक्षा में अध्ययन का विषय, शिक्षण की विधि और छात्रों के लिए अपेक्षित परिणाम पहले से निर्धारित होते थे। अध्ययन का समय अनुशासन और नियमितता के अनुसार विभाजित था, जिससे विद्यार्थी पूर्ण रूप से ध्यान केंद्रित कर पाते थे। इस व्यवस्थित कक्षा व्यवस्था ने न केवल शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित की, बल्कि विद्यार्थियों में समय का महत्त्व, अनुशासन और उत्तरदायित्व की भावना भी विकसित की। इस प्रकार, विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम और कक्षा व्यवस्था मिलकर एक उत्कृष्ट शैक्षणिक वातावरण निर्मित करते थे।
प्रश्न 23: विश्वविद्यालय के वैश्विक प्रभाव को कैसे समझा जा सकता है?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का वैश्विक प्रभाव इसके विद्यार्थियों और आचार्यों द्वारा बौद्ध धर्म और ज्ञान के प्रचार में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। विश्वविद्यालय के विद्वान तिब्बत, चीन, जापान और अन्य पूर्वी एशियाई देशों में गए और वहां शिक्षा, धर्म और संस्कृति का प्रसार किया।
विशेष उदाहरण के रूप में अतिश दीपंकर को लिया जा सकता है, जिन्होंने तिब्बत में जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया और लामा संप्रदाय की स्थापना की। इसके माध्यम से भारतीय बौद्धिक परंपरा और ज्ञान का वैश्विक स्तर पर विस्तार हुआ। इस प्रकार, विक्रमशिला न केवल भारत का गौरव रहा, बल्कि इसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रभाव और मान्यता भी स्थापित हुई।
प्रश्न 24: विक्रमशिला में तंत्र विद्या और अन्य कौशल का महत्व क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में तंत्र विद्या, योग, व्याकरण, न्याय, काव्य, विज्ञान और अन्य कौशलों को अत्यंत महत्व दिया जाता था। इन विषयों का उद्देश्य केवल सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान करना नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों के बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास को सुनिश्चित करना था।
तंत्र विद्या विद्यार्थियों को गहन आध्यात्मिक और मानसिक प्रशिक्षण देती थी, जबकि योग उन्हें ध्यान और मानसिक संयम में पारंगत बनाता था। न्याय और व्याकरण से तार्किक सोच और भाषाई कौशल विकसित होता था। इन सभी कौशलों का सम्मिलित प्रभाव विद्यार्थियों को न केवल ज्ञान के क्षेत्र में पारंगत बनाता था, बल्कि उन्हें जीवनोपयोगी दक्षताएँ और व्यवहारिक क्षमता भी प्रदान करता था। इस प्रकार, ये कौशल विश्वविद्यालय की शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग थे और छात्रों को सम्पूर्ण और परिपूर्ण मानव बनने की दिशा में मार्गदर्शित करते थे।
प्रश्न 25: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में छात्र और आचार्य किस प्रकार जीवन यापन करते थे?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में छात्र और आचार्य एक संगठित, अनुशासित और नैतिक जीवन यापन करते थे। नवागंतुक छात्रों को प्रारंभ में ‘भिक्षु वर्ग’ में रखा जाता था, जहां वे सरल जीवन शैली अपनाते, ध्यान और अध्ययन में लीन रहते, तथा नैतिक मूल्यों का पालन करते थे।
आचार्य पुत्रवत व्यवहार करते हुए छात्रों का मार्गदर्शन करते थे और उन्हें अध्ययन, शोध और ध्यान के उच्च मानकों के अनुसार प्रशिक्षित करते थे। विश्वविद्यालय में जीवन का प्रत्येक पहलू ज्ञान, अनुशासन और आत्मसंयम से जुड़ा हुआ था। भोजन, आवास, अध्ययन और सामाजिक व्यवहार सभी में संयम और नैतिकता का पालन अनिवार्य था। इस प्रकार, छात्र और आचार्य का जीवन न केवल ज्ञानपूर्ण बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि से भी समृद्ध होता था।
प्रश्न 26: विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने वाले छात्रों के लिए क्या आवश्यकताएँ थीं?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए छात्रों के लिए कई आवश्यकताएँ निर्धारित थीं। सबसे पहले, उन्हें द्वारपण्डितों द्वारा आयोजित मौखिक परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी। यह परीक्षा विद्यार्थियों के बौद्धिक ज्ञान, तर्कशक्ति और विद्या की समझ को परखती थी।
इसके अलावा, प्रवेश पाने वाले छात्रों को पूरे सत्र में नियमित रूप से अध्ययन और शोध कार्य में संलग्न होने की तत्परता और प्रेरणा रखना आवश्यक था। केवल वही छात्र प्रवेश पा सकते थे जो शिक्षा और ज्ञान के प्रति गंभीर, अनुशासित और समर्पित होते थे। इस तरह, विश्वविद्यालय ने उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा और शोध सुनिश्चित करने के लिए विद्यार्थियों का चयन सावधानीपूर्वक किया।
प्रश्न 27: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की वास्तुकला और प्रतिमाएँ कैसे थीं?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय की वास्तुकला भव्य, विशाल और अद्वितीय थी। इसके प्रांगण में 50 फीट ऊँची और 73 फीट चौड़ी प्रधान चैत्य संरचना थी, जो स्थापत्य कौशल और शिल्पकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
विश्वविद्यालय में प्राप्त प्रतिमाएँ भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भूमि स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई, जो उनके ध्यान और ज्ञान के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित थी। इसके अतिरिक्त, पद्मासन पर बैठे अवलोकितेश्वर की कांस्य प्रतिमा, पद्मपाणि और मैत्रेय की प्रतिमाएँ भी यहाँ की समृद्ध कलात्मक और धार्मिक परंपरा को दर्शाती हैं। ये संरचनाएँ और प्रतिमाएँ न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक और शैक्षणिक गरिमा को भी उजागर करती हैं।
प्रश्न 28: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पतन कैसे हुआ और इसका प्रभाव क्या पड़ा?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पतन तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में हुआ, जब तुर्कों के आक्रमण के दौरान इसे विध्वंसित कर दिया गया। आक्रमणकारियों ने इसे किला समझकर नष्ट किया, जिससे विश्वविद्यालय की भव्य इमारतें, पुस्तकालय और शिक्षण संसाधन बर्बाद हो गए।
इस पतन का प्रभाव केवल शारीरिक विनाश तक सीमित नहीं था। विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा और शोध कार्यों का प्रसार रुक गया, जिससे बौद्ध धर्म और दर्शन का अध्ययन तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा का प्रचार प्रभावित हुआ। भारत की बौद्धिक परंपरा और शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा अंतर पैदा हुआ, क्योंकि विक्रमशिला जैसे उत्कृष्ट शिक्षा केन्द्र का नाश होने से विद्वानों और छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के अवसर सीमित हो गए। इस प्रकार, विश्वविद्यालय का पतन भारत और एशिया में बौद्ध शिक्षा और ज्ञान के प्रसार पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल गया।
प्रश्न 29: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में आचार्य और छात्र किस प्रकार सम्मानित होते थे?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय के आचार्य और छात्र अपनी उच्च शिक्षा, ज्ञान और नैतिक आचरण के कारण देश-विदेश में विशेष मान-सम्मान प्राप्त करते थे। विश्वविद्यालय के नामांकित छात्र और आचार्य केवल स्थानीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मानित माने जाते थे।
राजदरबारों में आचार्य और छात्रों को विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया जाता था। उनकी उपस्थिति में विद्वता और बौद्धिक कुशलता का मूल्यांकन होता था, और उन्हें किसी भी सामाजिक या शैक्षणिक सभा में प्रतिष्ठित स्थान दिया जाता था। यह सम्मान उनके अध्ययन, शोध और धार्मिक कार्यों के प्रति उनके समर्पण का प्रतिफल था। इस प्रकार, विश्वविद्यालय में शिक्षा केवल ज्ञानार्जन तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसके माध्यम से छात्रों और आचार्यों को समाज और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती थी।
प्रश्न 30: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में पुस्तकालय का योगदान क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पुस्तकालय शिक्षा और शोध का केंद्रीय आधार था। यहाँ बौद्ध दर्शन, तंत्र विद्या, तर्क विद्या, योग, न्याय, विज्ञान, चिकित्सा और अन्य विद्या क्षेत्रों के ग्रंथों का विशाल संग्रह मौजूद था।
पुस्तकालय न केवल विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन का केंद्र था, बल्कि शोधार्थियों को पाण्डुलिपियाँ तैयार करने और ज्ञान सृजन का अवसर भी प्रदान करता था। उदाहरण स्वरूप, प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टशाहस्रिका प्रज्ञापारमिता’ की पाण्डुलिपि यहीं तैयार हुई थी। इस प्रकार पुस्तकालय ने विश्वविद्यालय के शिक्षा, अनुसंधान और बौद्धिक समृद्धि में अहम योगदान दिया और विद्यार्थियों को ज्ञान प्राप्ति तथा मानसिक विकास के उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में मदद की।
प्रश्न 31: विश्वविद्यालय में छात्रों की शिक्षा की प्रमुख विधियाँ क्या थीं?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा की प्रमुख विधियाँ अत्यंत व्यवस्थित और समग्र थीं। छात्रों को मौखिक शिक्षा के माध्यम से ज्ञान प्रदान किया जाता था, जिसमें द्वारपण्डित और आचार्य उनके समझ और तार्किक क्षमता का परीक्षण करते थे। इसके साथ ही, शोध कार्यों में संलग्न होकर छात्र स्वयं ज्ञान के गहन अध्ययन और अनुसन्धान में दक्ष होते थे।
प्रारंभ में छात्रों को ‘भिक्षु वर्ग’ में रखा जाता था, जहाँ उन्हें अनुशासन, ध्यान, नैतिक प्रशिक्षण और जीवन मूल्यों की शिक्षा दी जाती थी। आचार्य पुत्रवत व्यवहार करते हुए छात्र को व्यक्तिगत मार्गदर्शन देते थे, जिससे वे केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही नहीं बल्कि व्यावहारिक अनुभव और जीवनोपयोगी कौशल भी अर्जित कर पाते थे। इस प्रकार, विश्वविद्यालय में शिक्षा का तरीका ज्ञान, अनुभव और नैतिक प्रशिक्षण का संपूर्ण मिश्रण था।
प्रश्न 32: विश्वविद्यालय में ध्यान और साधना का महत्व क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में ध्यान और साधना को शिक्षा का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग माना जाता था। इनका उद्देश्य केवल मानसिक शांति प्राप्त करना नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों में बौद्धिक तीव्रता, आत्मनियंत्रण और आध्यात्मिक विकास को सुनिश्चित करना था।
छात्रों को भिक्षु वर्ग में रहकर नियमित ध्यान और साधना का प्रशिक्षण दिया जाता था। यह उन्हें अनुशासन, संयम और गहन सोच की क्षमता प्रदान करता था। साधना के माध्यम से छात्र न केवल अपने मन को स्थिर करते थे, बल्कि ज्ञान की गहन समझ और जीवन के मूल्यों को आत्मसात करने की कला भी सीखते थे। इस प्रकार ध्यान और साधना विद्यार्थियों के समग्र व्यक्तित्व विकास और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सहायक थी।
प्रश्न 33: विश्वविद्यालय का नाम विक्रमशिला क्यों रखा गया?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय का नाम किंवदंती के अनुसार इसलिए पड़ा क्योंकि इस स्थान पर एक यक्ष, जिसे विक्रम कहा जाता था, को हराकर यहाँ विहार (शिक्षा और ध्यान स्थल) का निर्माण किया गया। इस घटना को साहस, निष्ठा और उच्च चरित्र का प्रतीक माना गया।
नाम ‘विक्रमशिला’ का अर्थ ही ‘साहस और शील का स्थान’ है। विश्वविद्यालय के प्रांगण में विद्वानों और आचार्यों का विक्रमपूर्ण आचरण इस नाम की सार्थकता को और बढ़ाता था। यहाँ अध्ययन करने वाले छात्र और आचार्य न केवल ज्ञान प्राप्त करते थे, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक गुणों में भी परिपूर्ण बनते थे। इस प्रकार नाम ने विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा और उद्देश्य दोनों को दर्शाया।
प्रश्न 34: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में व्याकरण और न्याय का अध्ययन क्यों जरूरी था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में व्याकरण और न्याय का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता था क्योंकि ये विद्यार्थियों के तार्किक, भाषिक और विश्लेषणात्मक कौशल को विकसित करते थे। व्याकरण के माध्यम से छात्र भाषा के सही प्रयोग, साहित्यिक शैली और शास्त्रीय अभिव्यक्ति में निपुण होते थे, जिससे उनके अध्ययन और संचार कौशल में सुधार होता था।
न्याय का अध्ययन उन्हें तर्कशक्ति, निर्णय क्षमता और विवाद समाधान के कौशल प्रदान करता था। यह न केवल शास्त्रीय ज्ञान के लिए आवश्यक था, बल्कि जीवनोपयोगी शिक्षा में भी मददगार था। इन विषयों के अध्ययन से छात्र बौद्धिक रूप से सशक्त बनते थे और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी गहन समझ प्राप्त कर पाते थे। इस प्रकार व्याकरण और न्याय का अध्ययन विश्वविद्यालय की समग्र शिक्षा प्रणाली का महत्वपूर्ण अंग था।
प्रश्न 35: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में चिकित्सा विद्या का स्थान क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में चिकित्सा विद्या को पाठ्यक्रम का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग माना जाता था। यह न केवल विद्यार्थियों को शरीर और स्वास्थ्य के बारे में ज्ञान प्रदान करती थी, बल्कि जीवनोपयोगी और व्यावहारिक कौशल भी सिखाती थी।
छात्रों को आयुर्वेद, रोग निदान, उपचार पद्धतियों और शारीरिक स्वास्थ्य के वैज्ञानिक पहलुओं का गहन अध्ययन कराया जाता था। चिकित्सा विद्या के अध्ययन से छात्र न केवल शारीरिक स्वास्थ्य में दक्ष होते थे, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन के महत्व को भी समझते थे। इस प्रकार, चिकित्सा विद्या विश्वविद्यालय के समग्र शिक्षा दृष्टिकोण में नैतिक, बौद्धिक और जीवनोपयोगी विकास के लिए केंद्रीय भूमिका निभाती थी।
प्रश्न 36: विश्वविद्यालय में तंत्र और जादू विद्या का महत्व क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में तंत्र और जादू विद्या को शिक्षा का एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण अंग माना जाता था। तंत्र विद्या विद्यार्थियों को मानसिक नियंत्रण, ध्यान और आध्यात्मिक कौशल सिखाती थी, जिससे वे अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण पा सकते थे।
जादू और रहस्यमय विद्या का अध्ययन विद्यार्थियों को प्राकृतिक और अलौकिक शक्तियों के विज्ञानिक और तर्कसंगत पक्ष से परिचित कराता था। इन विद्याओं का उद्देश्य केवल ज्ञान अर्जित करना ही नहीं था, बल्कि विद्यार्थी के समग्र बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास को सुनिश्चित करना था। इस प्रकार तंत्र और जादू विद्या ने विश्वविद्यालय के व्यापक पाठ्यक्रम को गहन, रहस्यमय और बहुपरामीत बना दिया था।
प्रश्न 37: विश्वविद्यालय में आचार्यों का क्या महत्व था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों के लिए केवल शिक्षक नहीं, बल्कि मार्गदर्शक, संरक्षक और कुलपति की भूमिका निभाते थे। आचार्य विद्यार्थियों को बौद्ध सिद्धांतों, नैतिकता, अनुशासन और उच्च शिक्षा के सभी क्षेत्रों में प्रशिक्षण देते थे।
वे छात्रों को पुत्रवत मानकर उनका समग्र विकास करते थे और उनके अध्ययन व शोध कार्य में मार्गदर्शन प्रदान करते थे। आचार्यों की उपस्थिति से विद्यार्थियों में ज्ञान, धैर्य, वीर्य और आध्यात्मिक समझ विकसित होती थी। इसके अलावा, आचार्यों की प्रतिष्ठा और विद्वता ने विश्वविद्यालय की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और गौरव को बढ़ाया। इस प्रकार, आचार्य विश्वविद्यालय की शिक्षा प्रणाली और इसकी प्रतिष्ठा के केंद्रीय स्तंभ थे।
प्रश्न 38: विश्वविद्यालय में शोध कार्य का महत्व क्या था?
उत्तर: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शोध कार्य शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग था। यह केवल मौलिक ज्ञान अर्जित करने का साधन नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों को बौद्धिक, तार्किक और विश्लेषणात्मक कौशल विकसित करने का अवसर भी प्रदान करता था।
छात्र पाण्डुलिपियों और ग्रंथों के गहन अध्ययन में संलग्न रहते थे और नए विचारों, सिद्धांतों और व्याख्याओं की खोज करते थे। उदाहरण के लिए, ‘अष्टशाहस्रिका प्रज्ञापारमिता’ जैसी ग्रंथों की पाण्डुलिपियाँ विश्वविद्यालय में तैयार की गईं। शोध कार्य से छात्र केवल शास्त्रीय ज्ञान में ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी दक्ष बनते थे। इस प्रकार, शोध कार्य ने विश्वविद्यालय को ज्ञान और शिक्षा का उच्चतम केंद्र बना दिया था।
प्रश्न 39: विक्रमशिला विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा का उपयोग क्यों किया जाता था?
उत्तर: उत्तर:
विक्रमशिला विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा को शिक्षा का मुख्य माध्यम बनाया गया था क्योंकि यह शास्त्रीय अध्ययन, बौद्ध ग्रंथों और अन्य विद्या क्षेत्रों के लिए सर्वश्रेष्ठ माध्यम मानी जाती थी। संस्कृत के माध्यम से विद्यार्थियों को ज्ञान की गहन समझ, साहित्यिक अभिव्यक्ति और तार्किक चिंतन की क्षमता प्राप्त होती थी।
सभी पाठ्यपुस्तकें, ग्रंथ और शैक्षणिक संवाद संस्कृत में होते थे, जिससे छात्र न केवल ज्ञान में निपुण होते थे बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की बौद्ध और शास्त्रीय परंपरा का प्रचार कर सकते थे। संस्कृत भाषा ने विश्वविद्यालय की शिक्षा को अधिक व्यवस्थित, वैज्ञानिक और व्यापक बनाया, जो विद्यार्थियों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाती थी।
प्रश्न 40: आधुनिक समय में विक्रमशिला विश्वविद्यालय का महत्व क्या है?
उत्तर: आधुनिक समय में विक्रमशिला विश्वविद्यालय का महत्व उसकी ऐतिहासिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अत्यंत बढ़ गया है। पुरातात्विक उत्खनन और संरक्षण कार्यों से इसके प्रांगण, चैत्य, प्रतिमाएँ और अन्य अवशेष पुनः खोजे जा रहे हैं, जिससे इसकी भव्यता और वैभवपूर्ण अतीत की झलक सामने आ रही है।
यह स्थल आज न केवल शोधार्थियों और इतिहासविदों के लिए ज्ञान का महत्वपूर्ण केंद्र है, बल्कि विद्यार्थियों और आम लोगों के लिए भी शिक्षा, संस्कृति और बौद्ध परंपरा के अध्ययन का प्रमुख स्रोत बन गया है। विश्वविद्यालय का आधुनिक महत्व वैश्विक दृष्टि से भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली, बौद्धिक परंपरा और सांस्कृतिक गौरव को पुनः स्थापित करना है। यह स्थल शिक्षा, अनुसंधान और सांस्कृतिक पर्यटन के लिए भी प्रेरक है।
Answer by Mrinmoee